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प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा
कालकुमार प्रसंग :
क्रुद्ध पिता जरासंध ने पुत्र कालकुमार के इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया कि वह यादवों पर आक्रमण करे । उसने कहा – “यादव समुद्र में अथवा अग्नि में कहीं भी छिप जांय मैं उन्हें वहां से खींच लाऊंगा और नष्ट कर दूंगा ।" वह विशाल सेना लेकर यादवों के विरुद्ध निकल पड़ा । श्रीकृष्ण के रक्षक देवों ने यादव पक्ष की सहायता की। देवों ने एक विशाल एकद्वारीय दुर्ग की रचना की और भीतर स्थान-स्थान पर अनेक चिताएं प्रज्वलित कर दीं । कालकुमार जब इस दुर्ग पर पहुंचा तो द्वार पर एक अकेली वृद्धा बैठी रो रही थी।" उसने बताया कि कालकुमार के भय से सभी यादव अग्नि में प्रवेश कर गये। मैं भी जल मरूंगी । 23 कालकुमार अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण कर अग्नि से यादवों को खींच लाने के लिए चिता में प्रविष्ट हो गया । वह भस्म हो गया । " सेना ने रात्रि के कारण वहीं विश्राम किया । प्रातः जाग कर जब सैनिकों ने पाया कि वहां न तो कोई दुर्ग है और न ही वह वृद्धा तो वे आश्चर्यचक्ति रह गये ।
मार्ग में अतिमुक्त मुनि से भेंट हो जाने पर समुद्रविजय ने उनसे पूछा - इस विपत्ति में हमारा क्या होगा ? 95 उत्तर मिला - चिंता का कारण ही नहीं है । समुद्रविजय के पुत्र अरिष्टनेमि २२ वें तीर्थंकर होंगे । बलराम व श्रीकृष्ण क्रमशः बलदेव और वासुदेव हैं। वासुदेव श्रीकृष्ण प्रतिवासुदेव जरासंध का वध कर स्वयं तीन खण्डों के अधिपति होंगे ।"
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वह भी श्रीकृष्ण के बाणों से मारा गया । श्रीकृष्ण-बलराम आनंदपूर्वक मथुरावास करने लगे । अपराजित की मृत्यु का समाचार पाकर स्वयं जरासंध ने युद्ध के लिए प्रस्थान किया, तब ये मथुरा छोड़कर पश्चिम की यात्रा आरंभ करते हैं । - हरिवंशपुराण सर्ग ३६ / ६५ ६७, ४०/१-२३
९२. हरिवंशपुराण के अनुसार स्वयं जरासंध जाता है और इस प्रकार का दृश्य देखकर शत्रुनाश के कारण उसके मन में संतोष होता है और वह राजगृह लौट आता
है । हरिवंशपुराण - ४० / २८ - ४३ पृ० ४६४-६७
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३. (क) त्रिषष्टि : ८ / ५ / ३६७ - ३७६ (ख) भवभावना : २५२६-२५३५
६४. त्रिषष्टि : ८/५/३७८-३८०
६५. त्रिषष्टि : ८/५/३८६-३८७
६. ( क ) त्रिषष्टिशलाका : ८/५/३८८ ३८६ ( ख ) भवभावना : २५५८
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