SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य ने उसे मदित कर दिया और कमल लेकर तट पर आ गये: जिसे गोकलवासी कंस के पास ले गये। कंस का भय और भी घना हो गया। उसने आज्ञा दी कि नंद के पुत्र सहित सभी गोप युद्ध के लिए तैयार हो जाय ।69 श्रीमद् भागवतानुसार रमणकद्वीप में नागों का निवास था । नागमाता कद्र और गरुड-माता विनता के मध्य विकट शत्रता थी अतः गरुड जी जहाँ भी सर्प को देखते तुरंत उसे खा जाते थे। ब्रह्मा जी से निवेदन किये जाने पर उन्होंने निर्णय दिया कि प्रत्येक अमावस्या को एक साँप गरुडजी को दे दिया जाय और गरुडजी साँपों का व्यापक विनाश नहीं करेंगे। इन सों में कालिय बड़ा भयंकर और घमंडी था जो गरुडजी को दिया गया साँप भी स्वयं खा जाता था। कालिय और गरुडजी के मध्य भयंकर युद्ध हुआ जिससे आतंकित कालिय अन्य सुरक्षित स्थान पर बस जाना चाहता था। एक अन्य कथानुसार यमुना के एक द्रह में मत्स्यों का समूह रहता था और गरुडजी यहाँ मत्स्याहार किया करते थे। एक दिन जब वे मत्स्यनायक को ही खा गये तो उसकी पत्नियों ने ब्रह्माजी के समक्ष करुण पुकार की। उन्होंने गरुडजी को शाप दिया कि वे इस द्रह की मछलियाँ नहीं खाएंगे। यह द्रह इस प्रकार गरुडजी से सुरक्षित था और कालिय यहाँ निवास करने लगा। तब से यमुना के इस द्रह का जल विष के प्रभाव से सदा उबलता रहता था, जलचर भी इस प्रभाव से झुलस जाते थे। तट पर दूर-दूर तक कोई वनस्पति नहीं उगती थी। श्रीकृष्ण ने यमुना जल को शुद्ध करने का निश्चय कर लिया। जब इस उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने जल में छलांग लगायी तो क्रुद्ध कालिय ने उन पर आक्रमण किया और उन्हें अपनी दृढ़ कुंडली में जकड़ लिया। तब श्रीकृष्ण ने अपना तन इतना विकसित किया कि भयंकर पीड़ा से कराह कर कालिय को श्रीकृष्ण को मुक्त कर देना पड़ा। श्रीकृष्ण ने कालिय के मस्तक पर तीव्र पदाघात किये और उसे मदित कर दिया । अचेत नाग की पत्नियां पति के प्राणों के रक्षार्थ श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगीं। सचेत होकर कालिय भी प्राणों की भीख मांगने लगा। श्रीकृष्ण ने कालिय से कहा-यह स्थान छोड़कर तुम अपने मूल स्थान रमण द्वीप जाओ। मेरे चरण चिह्न तुम्हारे वक्ष पर अंकित हैं, अतः गरुड अब तुम्हें नहीं खायेगा। कालिभ ने ऐसा हो किया और यमुना जल शुद्ध हो गया ।70 ६६. हरिवंश पुराण : ३६/८-१० पृ, ४६ ७० . श्रीमद्भागवत : स्कंध १०-अध्याय १६-१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy