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प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा
१३३ उसने अत्यन्त आदर भाव के साथ वसूदेव को अपने यहाँ आमंत्रित किया और उन्होंने यह अनुरोध स्वीकार कर लिया।11 कंस के चाचा देवक मृतकावती-नरेश थे जिनकी राजकुमारी देवकी थी। अनुरागानुकुलता सहित कंस ने वसुदेव से रूप-गुणशीला नृपकन्या देवकी के साथ विवाह का अनुरोध किया। इस सानुनय आग्रह को वसुदेव भी अस्वीकार नहीं कर सके। प्रसन्न मन कंस ने वसुदेव के साथ मतकावती के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में नारद ने वसुदेव को देवकी से विवाहार्थ प्रेरित करते हुए कहा कि वह तुम्हारी समस्त पत्नियों से श्रेष्ठ है। सर्वत्रविहारी नारद जी ने वसुदेव से पूर्व मृतकावती पहुंच कर नपकन्या के समक्ष वसुदेव के गुण, रूप, शौर्य, शक्ति, शील आदि का ऐसा वर्णन किया कि देवकी मुग्ध हो गयी। उसने वसुदेव को पति-रूप में वरण करने का मन ही मन संकल्प कर लिया।
राजा देवक ने वसुदेव-कंस का भव्य स्वागत किया। वह बड़ा प्रसन्न था, किन्तु सहसा विवाह प्रस्ताव सुनकर वह अस्तव्यस्त हो गया। ना या हाँ करते हये भी वह तत्काल स्वीकृति नहीं दे पाया। पर, राजकुमारी का प्रबल झुकाव देखकर अन्ततः उसे प्रस्ताव स्वीकार करना ही पड़ा। अत्यंत भव्यता के साथ विवाह संपन्न भी हो गया। देवकी ने पाणिग्रहण के समय अतुल संपत्ति के साथ दस गोकुल के अधिपति नंद को भी वसुदेव को समर्पित किया।12 अतिमुक्त मुनि द्वारा भावी संकेत
__मथुरा आगमन पर कंस ने वसुदेव-देवकी के सम्मान में भव्य समारोह आयोजित किया ।13 कंस-वधु जीवयशा ने महोत्सव में अत्यधिक रुचि दिखायी। मदिरापान से वह उन्मत्त थी, तभी उसकी दृष्टि अतिमुक्त मुनि पर पड़ गयी जो पारणे के प्रयोजन से मथुरा के राजभवन में पहुंचे थे। यहां जीवयशा के मर्यादाहीन व्यवहार को देख कर वे उलटे पाँव लौट पड़े। जीवयशा ने उन्हें पुकार कर कहा-अरे देवर ! तुम ठीक ही समय पर आये हो। अच्छा हो तुम मेरे साथ नत्य करो, गान करो।14 मुनि उपेक्षा करते रहे, किंतु अत्यन्त प्रताडित किये जाने पर उन्होंने रोषपूर्वक अमंगल
११. त्रिषष्टि : ८।५।४३, १३. त्रिषष्टि : ८५७०
१२. त्रिषष्टि : ८।५।६६ १४. त्रिषष्टि : ८।२७१
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