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प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत में कृष्ण कथा
के परिणय में कंस की अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका रही । त्रिषष्टिशलाका' आदि ग्रंथों में वसुदेव के साथ कंस की घनिष्टता एवं अनुराग वर्णित हुआ है।
कंस का यह नाम क्यों रहा ? इसके पीछे भी एक कथा है । भोज वृष्णी के आत्मज उग्रसेन मथुराधिप थे और धारिणी उनकी महाराणी थी । कंस इसी राज-दम्पति का पुत्र था । कंस जब गर्भ में था, रानी धारिणी को एक अद्भुत दोहद ( इच्छा ) होने लगी कि वह अपने स्वामी उग्रसेन का मांस भक्षण करे ।" इस अमंगल कामना की पूर्ति एक विकट समस्या बन गयी । एक अंधेरे कमरे में राजा को ले जाया गया और एक खरगोश का वध कर दिया गया । योजनानुसार उग्रसेन जोर-जोर से कराहते रहे जिसे धारिणी ने सुना और अपने पति का मांस समझ कर उसने खरगोश के मांस का भक्षण किया। कालांतर में वह सोचने लगी कि जो संतान गर्भावस्था में ही पिता के लिये ऐसा कष्टकारी है तो वह जन्म लेकर और बड़ा हो जाने पर पिता के लिये कितना घातक सिद्ध हो सकता है ? भावी अनिष्ट की कल्पना मात्र से वह आकुल रहने लगी और पुत्र उत्पन्न होने पर उसने उसे कांस्यपेटिका में बंद कर यमुना में प्रवाहित कर दिया । माता और पिता के नाम अंकित कर दो मुद्रिकाएं उस पेटिका में रख दीं । एक धनिक सुभद्र के हाथ यह पेटिका लगी और वह स्नेहपूर्वक बालक का लालनपालन करने लगा । कांस्य पेटिका से प्राप्त होने के कारण बालक का नाम रखा गया - कंस ।
वयस्क होने पर कंस वसुदेव के आश्रय में अनुचर के रूप में रहने लगा, उन्होंने उसे युद्धादि समस्त कलाओं की शिक्षा दी । तदनंतर एक घटनाक्रम ने उसे मथुरा नरेश बना दिया । इस काल का प्रतिवासुदेव जरासंध राजगृही का अधिपति था । यह अति बलवान और पराक्रमी था और अनेक नृपति उनके वर्चस्वाधीन थे । जरासंध ने वसुदेव के भ्राता
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१. वर्तमान अवसर्पिणी काल के ५४ महापुरुषों के साथ प्रतिवासुदेवों को मिलाकर ६३ विशिष्ट व्यक्तियों का चित्रण इस ग्रंथ में किया गया है ।
२. त्रिषष्टि शलाका: 1
३. त्रिषष्टि: ८ २६२
४. त्रिषष्टि: ८|२|७०
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