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अपभ्रंश जैन श्रीकृष्ण-साहित्य साहित्य की परंपरामें उनकी दो रचनाएं महत्त्व के साथ गिनी जाती हैंपाण्डव पुराण एवं हरिवंश पुराण ।
पाण्डव पुराण का रचना कार्य वि०सं० १४६७ में (ई० सन् १४४०) कार्तिक शुक्लाअष्टमी बुधवार को संपन्न हुआ। इसमें ३४ संधियां आई हैं । हरिवंश पुराण की रचना वि०सं० १५०० में समाप्त हुई याने (ई० सन् १४४३) । इस रचना में १३ संधियां और २६७ कडवक हैं । काव्यात्मकता की दृष्टि से हरिवंश पुराण एक उत्तम रचना मानी जाती है। डा० हरिवंश कोछड भी इस मान्यता का अनुमोदन करते हैं ।18 हरिवंश के पुराण-पुरुष अहंत अरिष्टनेमि तथा वासुदेव कृष्ण का परंपरागत चरित वर्णन हुआ है। इस ग्रंथ की एक हस्तलिखित प्रति दिगंबर जैन मंदिर बड़ा तेरापंथियान का जयपुर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है। हरिवंश पुराण की रचना कवि ने योगिनीपुर में अग्रवाल वंशीय गर्ग गोत्रोत्पन्न दिउठा साहू की प्रेरणा से की थो 14 प्रस्तुत काव्य की रचना शैली इतिवृत्तात्मक है।
(8) हरिवंश पुराण : श्रुतिकोति
श्रुतिकीति १६ वीं शताब्दी (विक्रम) के कवि माने जाते हैं। इनकी कृति हरिवंश पुराण को डा० कोछड द्वारा महाकाव्य के रूप में मान्यता दी गई है।15 आमेर (जयपुर) के शास्त्र भण्डार में इस ग्रंथ की प्रति उपलब्ध है। हरिवंश पुराण में ४४ संधियां हैं। श्रुतिकीर्ति की एक अन्य रचना "परमेष्ठिप्रकाश'' भी अभी हाल ही में प्रकाश में आयी है।
अपभ्रंश में रचित साहित्य के विपुल भण्डार में जैन साहित्य का तो महत्त्वपूर्ण स्थान है ही किंतु जो ज्ञात अंश है वह कृष्ण कथा से संबद्ध है। इधर अनेक नव-नवीन अपभ्रंश रचनाओं की जो खोज होती चली आ रही है, इससे आशा बनती है कि भविष्य में अपभ्रंश जैन कृष्ण साहित्य की सूची में और भी अभिवृद्धि होगी।
१३. अपभ्रंश साहित्य : डा० हरिवंश कोछड, प० १२०-१२२ १४. वही, पृ० १७ १५. वही, पृ० १२६
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