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________________ १२१ अपभ्रंश जैन श्रीकृष्ण-साहित्य णउ कासु वि सामण्णहु अण्णहु अवसें तूसइ जवण सवण्णहु । विहि भाइहिं थक्कउ तीरिणि जलु णं धरणारि विहन्नउ कज्जलु । दरिसिउ ताइ तलु किं जाणहुं णाहहुत्ती।। पेक्खिवि महू महणु मयणे णं सरि वि विगुत्ती ।। (महापुराण, ८५-२) : तब मंथरगति से बहती हुई कालिंदी उनको दृष्टिगोचर हुई। मानो धरातल पर अवतीर्ण सरितारूपधारिणी तिमिरघन यामिनी। मानो कृष्ण की देहप्रभा की धारा। मानो अंजनगिरि की आभा। मानो धरातल पर खींची हुई कस्तूरी रेखा । मानो गिरिरूपी गजेंद्र की मदरेखा । मानो कंसराज की आयु:समाप्ति-रेखा। मानो धरातल पर अवस्थित मेघमाला। वृद्धा की तरंगबहुल। बाला सी श्यामा और मुक्तफलवती। वह शैवालबाल प्रशित कर रही है। फेनका उत्तरीय फहरा रही है। गेरुआ जलका, च्युत कुसुमों से कर्बुरित रक्तांबर पहने हुई है। किन्नरीरूपी स्तनाग्र दिखला रही है। विभ्रमों में संशयित कर रही है। सर्पमणि की किरणों से उद्योत कर रही है। कमलनयन से कृष्ण को मानो निहार रही है। वह कमल पत्र के थाल में जल-कण में अक्षत उछाल रही है। (कलकल शब्द करती मंगल गा रही है।) मानो कृष्ण के पक्ष की पुष्टि कर रही है। यमुना सचमुच सवर्ण पर प्रसन्न होती है, जैसों तैसों पर नहीं। फलरूप उसका जल दो विभागों में बंट गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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