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जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य पुराण में शेष २३ तीर्थंकरों का । इन तीर्थंकरों के समकालीन महापुरुषों के जीवन का वर्णन भी यथास्थान कर दिया गया है। भगवान अरिष्टनेमि के प्रसंग के साथ-साथ श्रीकृष्ण का चरित्र भी प्रस्तुत हुआ है।
इस कृति की ८१ से १२ तक की संधियां हरिवंश के कथानक को व्यापती हैं। इनमें से संधि ८५ में वासुदेव जन्म, ८५ में नारायण की बाल क्रीडा और ८६ में कंस और चाणर के संहार का विषय है। ८५ वीं संधि के ६-१०-११ कडवकों में पूतना, अश्व, गर्दभ और यमलार्जुन के उपद्रवों का विवेचन है । संधि ८४ के १६ कडवकों में अष्टमात्रिक और पंचमात्रिक लघु छंदों का प्रयोग सफलता के साथ किया गया है । जिसमें लय और ध्वनि शक्ति निर्माण करने की विशेषता विद्यमान है। १६ कडवकों में वर्षा वर्णन है । ८५-१२ में अरिष्टासुर, ८५-१६ में गोप वेष वर्णन और ८८-५ से १५ तक कृष्ण जरासंध युद्ध एवं ८६-८ कडवकों में कंस-कृष्ण युद्ध का विवेचन है। इनमें से कुछ चुने हुए उदाहरण यहां द्रष्टव्य हैं। नवजात कृष्ण को ले जाते हए वासुदेव कालिंदी दर्शन का प्रसंग
ता कालिंदि तेहिं अवलोइय मंथरवारिगामिणी । णं सरिरपु थरिवि थिय महियलि घणतमजोणि जामिणी।। णारायणातरणुपहपंति विव अंजणगिरिवारिदकंती इव । महिमयणाहिरइयरेहा इव बहुतरंग जरत्थदेहा इव । महिहरदंतिदाणरेहा इव कंसरायजीवियमेरा इव । वसुहणिलीणमेहमाला इव साम समुत्ताहल बाला इव । णं सेवालवाल दक्खालइ पेणुप्परियणु णं तहि धोलइ। गेस्यस्तु तोउ स्तंबरु णं परिहइ चुयकुसुमहिं कब्बुरु , किणरिथणसिहरई णं दावइ विब्भमेहिं णं संसउ पावइ। फणिमणिकिरणहि णं उज्जोयइ कमलच्छहि णं कणहु पलोयइ। भिसिणिपत्तथालेहि सुणिम्मल उच्चाइय णं जलकणतंदुल । खलखलंति णं मंगलु घोसइ णं माहवहु पक्खु सा पोसइ।
४. भारतीय भाषाओं में कृष्णकाव्य, प्र० खण्ड -डा. भगीरथ मिश्र, मध्यप्रदेश
साहित्य परिषद, भोपाल, सन १६७६, पृ० १६४-पुष्पदन्तमहापुराण ।
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