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अपभ्रंश जैन श्रीकृष्ण-साहित्य
ऐसे पराकाष्ठा युक्त बिंबों में कवि स्वयंभू की कल्पनावित व प्रतिभा के दर्शन हमें उपलब्ध होते हैं।
पूतना के विषलिप्त स्तन को दो हाथों से पकड़ कर अपने मुंह से लगाते हुए बालकृष्ण का रूप देखिए। : ।
सो थणु दुखधार धवलु हरिउहयकरतरेमाइयउ । पहिलारउ असुराहयणे णं, पंचजण्णु महिलाइयउ ॥
(स्वयंभू-छं० ५-४ घत्ता) पूतना का दुग्धधारा से युक्त धवलस्तन हरि के दोनों करों में ऐसा भाता था जैसा की असुरसंहार के लिए पहले पहल मुंह से लगाया हुआ पांचजन्य शंख । साथ ही काव्यत्व की दृष्टि से कवि ने सूक्तियों और कहावतों का भी प्रयोग किया है।
जं जे हउ दिण्णउ आसि तं तेहउ समावडइ । कि वयइए को दूव धणणे सालिकणिसु फले णिव्वडइ ॥
(स्व० च्छ० ६-१४ धत्ता) जैसा देते हो वैसा पाते हो। क्या कोदों बोने से कभी धान निपज सकता है ? (२) महापुराण या तिसट्ठीमहापुरुषगुणालंकार--कवि पुष्पदन्त
यह एक महत्त्वपूर्ण रचना है। जैन परंपरा में मान्य ६३ शलाका पुरुषों का चरित्र इस महाकाव्य का प्रतिपाद्य रहा है । ८१ से १२ तक की संधियों में हरिवंशपूराण की कथा इसमें पद्य बद्ध मिलती है। डा. हरिवंश कोछड के मतानुसार इस महाकाव्य की रचना ६४७ से १६४ के मध्य में हई
तिसठिठ महापुरुषगुणालंकार महाकाव्य को महापुराण के नाम से भी जाना जाता है। महापुराण की प्रचलित पद्धति के अनुसार यह रचना भी दो खण्डों में विभक्त है-१. आदिपुराण और २. उत्तरपुराण । आदि पुराण में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का चरित्र अंकित है और उत्तर
३. भारतीय भाषाओं में कृष्णकाव्य, प्रथम खण्ड-सं० डा० भगीरथ मिश्र,
पृ० १६२,
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