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जैन - परंपरा में श्रीकृष्ण-साहित्य
चुका है कि ये अपभ्रंश भाषा के प्रथम ज्ञात कवि हैं। इसके साथ यह तथ्य भी प्रमुखतः ध्यातव्य है कि यही कवि स्वयंभू अपभ्रंश के जैन श्रीकृष्ण साहित्य की परंपरा के भी प्रथम कवि हैं । स्वयंभू एक सिद्ध कवि थे और उनकी रचनाओं में प्रौढ़ता एवं परिपक्वता के दर्शन होते हैं । कवि की रचना रिठ्ठणेमिचरिउ ( अरिष्टनेमिचरित्र) एक उल्लेखनीय महाकाव्य कृति कही जा सकती है । यह ग्रंथ ४ काण्डों में विभाजित है ।
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१. यादव काण्ड की १३ संधियां, २. कुरु काण्ड की १६ संधियां, ३. युद्धकाण्ड की ६ संधियां, ४. उत्तर काण्ड की २ संधियां ।
संपूर्ण ग्रंथ में ११२ संधियां और १९३७ कड़वक हैं । महाकाव्य की ११२ संधियों में ६६ वें संधियां हैं जो स्वयंभू द्वारा रचित हैं । और शेष का कर्तत्व उनके पुत्र त्रिभुवन और १५वीं शताब्दी के यशकीर्ति भट्टारक को दिया गया है, क्योंकि इन दोनों ने इसे पूर्ण किया है । जैन ग्रंथों की यह परंपरा भी रही है कि उसे आरंभ एक कवि करता है और शेष अंश दूसरों के द्वारा पूर्ण किया जाता है । स्वयंभू ने जिनसेन और वैदिक परंपरा के कथानकों का अनुसरण किया है ।
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यह स्मरण रहे कि चंद वरदाई ने भी अपने पुत्र जल्हण से "पृथ्वीराजरासो" को पूर्ण करने के लिये आदेश दिया था । इसी प्रकार भावार्थ रामायण के मराठी लेखक संत एकनाथ की कृति का उत्तरकाण्ड और युद्ध काण्ड का कुछ अंश उनके शिष्य गावबा ने पूर्ण किया था । इस प्रकार जैनों में भी यह भारतीय परंपरा मिलती है ।
रिठ्ठमिचरिऊ के प्रथम यादव काण्ड में श्रीकृष्ण चरित्र का विशद वर्णन मिलता है । श्रीकृष्ण जन्म, बाललीला, श्री कृष्ण के विभिन्न विवाह, प्रद्युम्म कुमार का जन्म नेमिजन्म, शाम्ब आदि की कथाएं आदि विभिन्न कृष्ण चरित्र के प्रसंगो का इस काण्ड में पर्याप्त महत्व के साथ चित्रण हुआ है ।
संधि ४ ( कडवक१२ ) में कृष्ण जन्म का प्रसंग स्वयंभू द्वारा चित्रित है । स्वयंभू की प्रतिभा काव्यात्मक परिस्थिति को आंकने में विशेष जागरूक है । उदाहरण के लिए उनके कालियामर्दन वाले प्रसंग में से कल्पना से परिपूर्ण वर्णन वैशिष्ट्य से युक्त है, जो छं० १४-२ में विवेचित किया गया है।
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