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अपभ्रंश जैन श्रीकृष्ण-साहित्य
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मानो इससे ही संलग्न हो ऐसा 'मत्तबालिका मात्रा' का उदाहरण
कमल कुमुआण एक्क उत्पत्ति
ससि तो वि कुमुआअरहं बेइ सोक्खू कमलहं दिवाअरु । पाविज्जइ अवस फलु जेण जस्स पासे ठवेइउ |
कमल और कुमुद दोनों का प्रभवस्थान एकही होते हुए भी कुमुदों के लिए चंद्र एवं कमलों के लिए सूर्य सुखदाता है । जिसने जिसके पास धरोहर रखी हो उसको उसी से अपने कर्मफल प्राप्त होते हैं ।
इन पद्यों से गोविंद कवि की अभिव्यक्ति की सहजता का तथा उसकी प्रकृतिचित्रण और भावचित्रण की शक्ति का हमें थोड़ा-सा परिचय मिल जाता है । यह उल्लेखनीय है कि बाद के बालकृष्ण की क्रीडाओं के जैन कवियों के वर्णन में कहीं गोपियों के विरह की तथा राधा संबंधित प्रणयचेष्टा की बात नहीं है । दूसरी बात यह है कि मात्रा या रड्डा जैसा जटिल छंद भी दीर्घ कथात्मक वस्तु के निरूपण के लिए कितना सुगेय एवं लयबद्ध हो सकता है, यह बात गोविंद ने अपने सफल प्रयोगों से सिद्ध की। आगे चल कर हरिभद्र से इसी का समर्थन किया जाएगा । और, छोटी रचनाओं में तो रड्डा का प्रचलन १५ वीं, १६ वीं शताब्दी तक रहा । रड्डा छंद का उदाहरण यहीं पर दिया जा रहा है -2
( स्व० च्छ०, ४-९-१ )
इत्तउ बोप्पिणु सउणि ठिक पुणु दुसासणुबोप्पि । तो हउ जाउ एहो हरि जइमह अग्गह बोप्पि ॥
इतना कहकर शकुनी चुप रह गया और बाद में दुःशासन ने यह कहा कि मेरे सामने आकर जब बोले तब जानूं कि यही हरि है ।
प्रस्तुत अर्थ में कुछ अस्पष्टता होते हुए भी इतनी बात स्पष्ट है कि प्रसंग कृष्ण विषय का है । यह पद्य भी शायद गोविंद की जैसी ही अन्य कोई महाभारत विषयक रचना में से लिया गया है ।
(१) महाकवि स्वयंभूकृत रिठ्ठणेमिचरिउ
स्वयंभू नौवीं शताब्दी के कवि हैं और जैसा कि वर्णित किया ही जा
२. सिद्धहेम, ८-४, ३६१
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