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जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य जैन अपभ्रश साहित्य में श्रीकृष्ण सोदाहरण :
__ भारतीय वाङमय के विकास में अपभ्रंश साहित्य का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। हमारे समस्त साहित्यिक गौरव-भवन के आधारभूत स्तम्भों में अपभ्रंश को स्वीकारना भी सभी दृष्टियों से समीचीन प्रतीत होता है । अपभ्रंश का उल्लेख हमारे इतिहास के अतिप्राचीन युग से मिलता है। पातंजल महाभाष्य में अपभ्रंश का सर्वप्रथम उल्लेख प्राप्त होता है जो ईसा से दो शताब्दी पूर्व की रचना है, किंतु यह भी सत्य है कि अपभ्रंश साहित्य की रचना ईसा को आठवीं शताब्दी से ही सजित होने लगी थी। इससे पूर्व इस भाषा को रवना कहों भो दृष्टिगत नहीं होती । अपभ्रंश का आदि कवि स्वयंभू माना जाता है।
अपभ्रंश साहित्य विपुल मात्रा में मिलता है और यह भी एक सत्य है कि इसको विपुलता का सर्वाधिक श्रेय जैन कवियों को दिया जाता है। इस समय उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य का सर्वेक्षण किया जाए तो यह निष्कर्ष प्रकट होता है कि इसके तोन चौथाई से भी अधिक अंश के रचयिता जैन रचनाकार ही मिलेंगे। अपभ्रंश के जैन साहित्य में श्रीकृष्ण चरित्र भी उल्लेखनीय मात्रा में वर्णित हुआ है । इस दृष्टि से उल्लेखनीय रचनाएँ एवं उनके रचनाकारों का विवरण भी प्रासंगिक ही होगा। स्वयंभू पूर्व के कृतिकार :
___महाकवि स्वयंभू के पूर्व की कृष्ण विषयक अपभ्रंश रचनाओं के बारे में जो जानकारी मिलती है वह अत्यन्त स्वल्प और त्रोटक है। इसके लिए आधार हैं—स्वयंभूकृत छन्दोग्रन्थ स्वयंभूछन्द में दिए गये कुछ उद्धरण में हमें प्राप्त होते हैं। हेमचंद्रकृत-“सिद्धहेमशब्दानुशासन' के अपभ्रंश विभाग में दिए गए तीन उद्धरण और कुछ अपभ्रंश कृतियों में दिये गये कुछ कवियों के नाम-निर्देश इस प्रकार हैं ।
स्वयंभू के पूर्वगामियों में चतुर्मुख स्वयंभू की ही कक्षा का समर्थ महाकवि था। सम्भवतः वह जैनेतर था। उसने एक रामायण विषयक और एक महाभारत विषयक ऐसे कम से कम दो अपभ्रंश महाकाव्यों की रचना
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