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अपभ्रंश जैन श्रीकृष्ण-साहित्य
११३ दीर्घकालीन परंपरा से नियत थे। जहां तक कथानक का संबंध है, वहां जैन श्रीकृष्ण कथा की विभिन्न कतियो में परिवर्तन के लिए कम गंजाइश रहती थी । तपशीलों के विषय में कार्यों की प्रवृत्ति, निर्मितों के विषय में
और निरूपण की कथा के विषय में एक कति और दूसरी कति के बीच प्रचुर मात्रा में अन्तर पाया जाता है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर और श्वेताश्बर जैन परंपरा के कृष्ण चरित्रों की भी अपनी-अपनी विशेषताएं रहती हैं। इसलिए उनके रूपान्तर के अनुसरण करने में भी कुछ भिन्नत्व मिलता है, विषयों को संप्रदायानुकूल बनाने के लिए मूल कथानक को लेकर कोई सर्वमान्य प्रणाली इनके सामने नहीं थी, इसलिए जैन रचनाकारों ने अपने-अपने स्वतंत्र मार्ग अपनाएं हैं।
जैन कृष्ण चरित्र के अनुसार कृष्ण न तो दिव्य पुरुष थे, न ईश्वर के अवतार । वे तो एक असामान्य शक्तिशाली वीर पुरुष एवं सम्राट थे। जैन पुराण कथा के अनुसार तिरसठ महापुरुष या शलाकापुरुष हो गए हैं। इसके साथ तीर्थंकर चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और प्रति वासुदेव की संख्याओं का समावेश होता है।
__ जैन कृष्ण काव्य में एक नई त्रिपुटि मिलती है जो कृष्ण, बलराम और जरासंध की है। दिगम्बर परंपरा में चतुःपंचाशत महापुरुषों की परंपरा थी। ऐसी कृति को महापुराण कहा जाता है। इसके दो भाग हैं, एक का नाम-आदि पुराण और दूसरे का नाम उत्तर पुराण है। आदि पुराण में प्रथम तीर्थंकर व प्रथम चक्रवर्ती और उत्तर पुराण में शेष महापुरुषों के चरित्र विवेचित किए गये हैं। ६३ महापुरुषों के चरित्रों को ग्रथित करनेवाली परंपरा में रचनाओं के नाम त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र या त्रिषष्टि महापुरुष चरित्र कहा जाता है। जब इनमें नव प्रतिवासुदेवों की गिनती नहीं की जाती थी तब ऐसी रचना को “चतुष्पंचाशत महापुरुष चरित्र'' ही कहते थे।
इसके अलावा किसी एक तीर्थंकर, वासुदेव, और चक्रवर्ती को लेकर भी कृतियां रची जाती रही हैं । इनको पुराण भी कहा जाता है, कृष्ण वासुदेव का चरित्र तीर्थंकर अरिष्टनेमि के साथ संलग्न है । ऐसी रचनाओं के नाम हरिवंश पराण या अरिष्टनेमि पुराण भी पाया जाता है।
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