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अपभ्रंश जैन श्रीकृष्ण - साहित्य
भारतीय साहित्य के इतिहास की दृष्टि से जो अपभ्रंश का उत्कर्ष - काल समझा जाता है वही जैन कृष्ण काव्य का मध्यान्ह काल है । इसी कालखण्ड में पौराणिक और काव्य साहित्य की अनेक कृष्ण-विषयक रचनाएँ सर्जित हुई हैं । विषय व शैली की दृष्टि से जैन अपभ्रंश श्रीकृष्ण साहित्य पर संस्कृत और प्राकृत परंपरा का प्रभाव दिखाई देता है । यह सत्य है कि ये अपभ्रंश काव्य रचनाएँ प्रायः अप्रकाशित हैं । इनका उपलब्ध होना भी कठिन है । फिर भी यह श्रीकृष्ण साहित्य काव्यगुणों से वंचित नहीं माना जा सकता ।
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अपभ्रंश में नवमीं शताब्दी के पूर्व कोई कृति उपलब्ध नहीं है । दसवीं शताब्दी तक स्वल्प संख्या में ही कृतियाँ उपलब्ध हैं । अपभ्रंश की लाक्षणिक साहित्यिक एकाध कृति यदि मिल भी जाए तो वह उत्तरकालीन है । अपभ्रंश का बचा हुआ साहित्य विशेष रूप से धार्मिक साहित्य होने से केवल धार्मिक जैन - साहित्य के अंतर्गत ही आता है । वैसे जो कुछ भी अपभ्रंश - साहित्य बचा है वह भी अल्प प्रकाशित है और अन्य भण्डारों में हस्तलिखित प्रतियों के रूप में होने से सर्वसुलभ नहीं है ।
संस्कृत एवं प्राकृत में पौराणिक और काव्य साहित्य की अनेक कृष्ण विषयक कथाओं की रचनाएँ मिलती हैं । इनमें हरिवंश विष्णुपुराण तथा भागवत पुराण की कृष्ण कथाएं ही तत्कालीन अपभ्रंश साहित्य रचनाओं का मूलस्रोत रही हैं । अपभ्रंश साहित्य में भी कृष्ण विषयक रचनाओं की दीर्घं व व्यापक परंपराओं का रहना सहज था । परंतु जिन परिस्थितियों का हम वर्णन कर आए हैं उनके कारण अपभ्रंश का एक भी शुद्ध कृष्णकाव्य उपलब्ध नहीं होता । जैनेतर कृष्णकाव्य भी उपलब्ध नहीं होता । जैन कृष्ण कथा में भी मुख्य-मुख्य प्रसंग उनके क्रम एवं पात्र के स्वरूप आदि
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