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________________ संस्कृत-जैन श्रीकृष्ण-साहित्य १०६ संधान-काव्यों की रचना द्वारा भी जैन काव्यकारों ने संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि की है । इस कोटि की काव्य-परंपरा का आदि ग्रंथ धनंजय कृत द्विसंधान एक जैन कृष्ण संस्कृत काव्य कृति है। इस परंपरा में इससे भी पूर्व रचित दण्डि कृत द्विसंधान की चर्चा तो की जाती है। भोजकृत श्रृंगारप्रकाश में भी उसका उल्लेख है, किंतु यह कृति उपलब्ध नहीं है। अतः मेरे मत से संधान काव्य-परंपरा का उदय धनंजय प्रणीत द्विसंधान से किया जाना अधिक समीचीन होगा। इस परंपरा में अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं विद्यामाधव कृत पार्वती शैवमपीय (वि० सं० ११८३), कविराज कृत राघव पाण्डवीय (वि० सं० १२३०), सोमेश्वर द्वारा रचित राघवयादवीय आदि। राघवयादवीय द्विसंधानरचना कतिपय अन्य कवियों द्वारा भी गई है। जैसे- वेंकेटश्वरी (१४वीं शताब्दी), रघुनाथाचार्य श्री विगसाचार्य, वासदेव दिगंबर अनन्ताचार्य आदि । ये द्विसंधान काव्य निश्चय ही धनंजय कृत राघवपाण्डवीय की परवर्ती कृतियाँ हैं। राघवपाण्डवीय काव्य में श्री राम और पाण्डवों की कथा एक साथ एक ही काव्य में वणित की गयी है । श्लोकों के दो-दो अर्थ प्रकट होते हैं। एक राम कथा के संबंध में एवं दूसरा पाण्डव कथा के संबंध में है। इसी प्रकार राघवयादवीय में श्री राम और श्री कृष्ण चरित का समानान्तर रूप में वर्णन है । आद्योपांत ऐसी अर्थ-निर्वाह-व्यवस्था कवि के बढ़े-चढ़े काव्यकौशल का परिचय देती है। हम इसे जैन संस्कृत संधान कृष्ण काव्य के अंतर्गत परिगणित करते हैं। आचार्य हेमचंद्र ने तो सप्तसंधान की रचना की थी। इसमें सात-सात महापुरुषों के जीवन चरित का वर्णन एक ही काव्य में प्रायः एक ही श्लोक के प्रयोग से किया गया था। यह अद्भुत काव्य ग्रंथ नष्ट हो गया। कालांतर में मेघविजय गणि ने पुन: सप्तसन्धान काव्य की रचना की। कुछ पंचसंधान काव्य भी जैन कवियों ने रचे हैं। ___ संस्कृत साहित्य में संदेश काव्यों की एक समृद्ध परंपरा रही है -मेघदूत श्रेष्ठ संस्कृत संदेश काव्य है, जिसमें बाह्य प्रकृति वर्णन के साथ-साथ आंतरिक भावों का मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है। मेघदूत की समस्यापूर्ति के रूप में रचा गया पाश्र्वाभ्युदय अपने ढंग का अनूठा जैन संस्कृत काव्य है। जैन कवियों ने दूत अथवा संदेश काव्यों के स्वरूप में एक नया रंग जोड़ने का सफल प्रयास किया है। इन काव्यों में शांत रस का प्राधान्य रहा है और जैन सिद्धांतों, तत्त्वों और आदर्शों का प्रतिपादन किया गया है । इस दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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