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संस्कृत-जैन श्रीकृष्ण-साहित्य ..
१०७ माना जाता है। शील, शौर्य एवं ऐश्वर्य का जितना व्यापक चित्रण चंद्रप्रभ चरित में हुआ है उतना रघुवंश में नहीं । इंदुमति के स्वयंवर प्रसंग के उदात्त वर्णन में अवश्य ही रघवंश चंद्रप्रभ चरित से आगे बढ़ गया है किंतु श्री वर्मा और अजितसेन की दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में तो वह पीछे ही रह गया
इसी प्रकार महाकवि असग द्वारा रचित “वधमानचरित", वाग्भट कृत "नेमिनिर्वाण" आदि काव्य “किरात” के समान ही काव्यसौंदर्य-संपन्न हैं । अर्थ-गांभीर्य अवश्य ही किरात में बढ़ा चढ़ा है किंतु उक्त दोनों काव्य प्रकृति-चित्रण, शृंगार वर्णन, पदलालित्य, कल्पना प्रवणता, और समासशैली के सौष्ठव में तो किरात से अधिक ही ठहरते हैं।
"कवि हरिश्चंद्र'' के धर्मशर्माभ्युदय की तुलना शिशुपाल वध से भी की जा सकती है। कलात्मकता में तो धर्मशर्माभ्युदय अपेक्षाकृत शिशपालवध से कुछ आगे ही है। दोनों ही काव्य कल्पना, उदात्तता, शब्द-सौंदर्य, अलंकार छटा आदि विशेषताओं में परस्पर समकक्ष हैं। पद-विन्यास, शैली की गंभीरता, भावों की मौलिकता आदि भी दोनों काव्यों में समस्तरीय रही है। शिशुपाल वध को माघ ने पारिभाषिक शब्दावली से कहीं-कहीं जटिल बना दिया है किंतु धर्मशर्माभ्यूदय में ऐसी स्थिति कहीं भी दिखाई नहीं देती है। इस काव्य का १९वां सर्ग तो चित्रकाव्य का अनूठा उदाहरण ही है। अनुप्रास योजना में कवि हरिश्चंद्र और माघ एक से प्रतीत होते
हैं।
वस्तुपाल कृत (नरनारायणानंद) भी एक सुंदर कृष्ण-चरित काव्य है। इसकी तुलना काव्य-सौष्ठव में तो शिशुपाल वध के साथ नहीं की जा सकती किंतु भाव पक्ष की दृष्टि से वस्तुपाल भी माघ के समीप ही हैं। अपने गांभीर्य से (नरनारायणानंद) काव्य सहृदय पाठकों को आकृष्ट कर रघुवंश जैसा प्रभाव अंकित करने को क्षमता रखता है। इसमें भारवि के समान नाद-सौंदर्य निहित है । कलापक्ष की दृष्टि से वस्तुपाल और भारवि परस्पर तुलनीय हैं।
"नैषधकाव्य" की कोटि की रचना जैन कवियों द्वारा संभव नहीं हो पायी है । यद्यपि मुनिभद्र ने संकल्प किया था कि वे माघ और नैषध से भी श्रेष्ठ काव्य की रचना करेंगे। किंतु (शांतिनाथ चरित) में उनका यह संकल्प पूरा नही हो पाया। तथापि प्रस्तुत काव्य अनेक दृष्टियों से मूल्यवान भी है। इसमें प्रासादिकता, प्रौढ़ गंभीर भाषा, भाव तरलता आदि विशेषताएँ
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