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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य प्रस्तुत की गई है। इस प्रकार जीवन को प्रवृत्ति की ओर से निवृत्ति की ओर उन्मुख करने का जो सफल और प्रभावपूर्ण प्रयत्न किया गया है उससे मानव कल्याण के क्षेत्र में एक नवीन स्थापत्य का सूत्रपात हुआ है। संस्कृत वाङ मय में यह एक नया आयाम रहा है।
जैन कृष्ण काव्य की कृतियों का सब से महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस साहित्य में भोगवाद के ऊपर श्रमण परंपरा को प्रतिष्ठित किया गया है। कर्मवाद की महत्ता, पूर्वजन्म की व्याख्या, आध्यात्मिक जीवन के विभिन्न रूप, धार्मिक क्रियाओं के फलितार्थ आदि भी इन काव्यों की मल संवेदनाएं हैं। भोग के बाद की विरक्ति का युग जैन साहित्य में उपलब्ध होता है । यह संस्कृत साहित्य के लिए एक अनूठी वस्तु है। परम वैभवशाली पराक्रमी राजा, महाराजा, मांडलिक, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि तो असीम सुखोपभोग में निमग्न हैं, सांसारिक विषय वासनाओं से ग्रस्त हैं, वैभव एवं विलास की मदिरा से उन्मत हैं । ऐसे व्यक्ति कभी किसी छोटे से निमित्त को पाकर विरक्त हो जाते हैं। उनकी मनोवृत्ति सर्वथा परिवर्तित हो जाती है। वे सब कुछ त्याग कर वन को प्रस्थान करते हैं। मुनि जीवन स्वीकार कर वे आत्म-कल्याण की साधना में प्रवृत्त हो जाते हैं । व्यक्ति का यह उत्थानात्मक परिवर्तन और इस परिवर्तन की प्रेरणा संस्कृत साहित्य के लिए एक भूल्यवान वस्तु रही है। जैन संस्कृत कृष्ण काव्य को देन
निश्चय ही अपनी मौलिक अवधारणाओं के माध्यम से जैन संस्कृत कृष्ण परंपरा की कृतियों ने संस्कृत साहित्य में अपना अनूठा स्थान ही नहीं बनाया वरन् समस्त संस्कृत वाङ्मय को नवीनताएँ भी प्रदान की है। इसकी श्रीवद्धि की है। इसको समद्ध बनाया है। इस तथ्य को सर्वथा असंदिग्ध ही माना जाना चाहिए कि संस्कृत जैन कृष्ण साहित्य के अध्ययन के बिना संस्कृत साहित्य का अध्ययन परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
चरित्र-काव्य की दृष्टि से जैन संस्कृत साहित्य बड़ा संपन्न स्वरूप रखता है । समग्र संस्कृत साहित्य में चरित-काव्य के प्रणेताओं में जैन रचनाकार ही अधिक हैं और इनके द्वारा रचित चरित-काव्य हो अपेक्षाकृत अधिक हैं। जैन संस्कृत चरित्र-काव्य कवित्व की दष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इस दृष्टि से कवि वीरनंदि रचित "चंद्रप्रभचरित" उल्लेखनीय है, जो भाव-तारल्य और शील निरूपण में कालिदास कृत "रघुवंश' के समकक्ष
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