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संस्कृत-जैन श्रीकृष्ण-साहित्य (१३) पाण्डव-चरित (देवप्रभसूरि)
१८ सर्गों में बद्ध इस कृति का कथानक लोकप्रसिद्ध पाण्डवों के चरित्र पर आधारित है जो जैन परंपरा के अनुसार वर्णित है । साथ ही इसमें नेमिनाथ का चरित भी यथा-प्रसंग कवि ने अंकित किया है । वीररस प्रधान इस काव्य में शृंगार, अद्भुत और रौद्र रसों के साथ शांतरस में काव्य का पर्यवसान हुआ है। महाकाव्यत्व की दृष्टि से नगरी, पर्वत, वन, उपवन, वसन्त, ग्रीष्म आदि का वर्णन भी इसमें संदर ढंग से किया गया है। वर्ण्य विषयों के अनुसार ही सर्गों के नामकरण हुए हैं।
प्रस्तुत कृति के कथानक का आधार षष्ठांगोपनिषद् तथा हेमचंद्राचार्य चित त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित आदि ग्रंथ हैं नेता किया तो ने स्वयं कहा है--
षष्ठांगोपनिषत्रिषष्टिचरितानालोक्यकौतूहला
देतत् कन्दलयांचकार चरितं पाण्डोः सुतानामहम् । आठ हजार श्लोकप्रमाण इस ग्रंथ में अनुष्टुप् छंद का उपयोग हुआ है। वसंततिलका, शार्दूलविक्रीडित, मालिनी आदि छंदों का भी प्रयोग कवि ने किया है । अनुप्रास, यमक, वीप्सा, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों का उपयोग भी यथास्थान किया गया है। यह एक धार्मिक काव्य है जिसमें दानशीलता आदि का वर्णन करते हुए कवि ने संसार की अनित्यता का वर्णन किया है। रचयिता व रचनाकाल
कृति में दी गयी प्रशस्ति के अनुसार इसके रचयिता मलधारीगच्छ के देवप्रभसूरि थे। देवानंदसूरि के अनुरोध पर यह ग्रंथ रचा गया है ।103 पांडव चरित के संपादकों ने इसका रचनाकाल वि० सं० १२७० माना है ।104 (१४) हरिवंश पुराण (भट्टारक सकलकोति)
प्रस्तुत कृति के रचनाकार भट्टारक सकलकीति हैं। जिनसेन के हरिवंशपुराण के कथानक पर आधारित इस कृति में ४० सर्ग हैं।105 इसमें हरिवंश कुलोत्पन्न २२वें तीर्थकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण तथा कौरव व पाण्डवों
१०३ पाण्डवचरित प्रशस्ति, पद्य, ८-६ १०४ . जैन साहित्य नो सक्षिप्त इतिहास : मो० द० देसाई १०५. जि० र० को० पृ० ४:०, राजस्थान के जैन सन्त : ब्यक्तित्व और कृतित्व
पृ० २६
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