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संस्कृत - जैन श्रीकृष्ण - साहित्य
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आरंभ के ४२ पर्व (सर्ग) तथा ४३ वें पर्व के प्रारंभिक ३ पद्य आचार्य जिनसेन रचित हैं । इस प्रकार आचार्य जिनसेन ने पूर्वार्द्ध की रचना की थी, शेषांश उत्तरपुराण की रचना गुणभद्राचार्य के द्वारा पूर्ण की गयी है । जो इन्हीं आचार्य जिनसेन के एक विद्वान पण्डित सिद्धकवि व सुयोग्य शिष्य रत्न थे । उत्तरपुराण के ७१, ७२ व ७३ वें पर्व में श्रीकृष्ण कथा का विवेचन है ।
महापुराण के उत्तरार्द्ध उत्तरपुराण की रचना की समाप्ति विक्रम संवत् ६१० सन् ८५३ के लगभग बतायी जाती है । "
हरिवंशपुराण और उत्तरपुराण परवर्ती ग्रंथकारों के लिए आधारभूत ग्रंथ रहे हैं । इन्हीं आदर्शों पर विशेषतः दिगंबर जैन विद्वानों ने श्रीकृष्ण जन्म संबंधी अनेक रचनाएं प्रस्तुत की हैं । इसके प्रथम अंश आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव का चरित्र वर्णन है, तो शेष २३ तीर्थकरों तथा अन्य शलाका पुरुषों का जीवन चरित्र उत्तरपुराण में विवेचित हुआ है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कृष्ण वर्णन हरिवंश पुराण की अपेक्षा संक्षिप्त हुआ है । इसमें परंपरागत कृष्णचरित्र के प्रमुख प्रसंगों का ही विवेचन है । अन्य घटनाओं का उल्लेख मात्र आ पाया है । महापुराण के कर्ता जिनसेन से हरिवंशपुराण के रचनाकार जिनसेन भिन्न हैं । हरिवंशपुराण के कर्ता पुन्नाटक संघीय आचार्य थे । जब कि महापुराणकार पंचस्तूपान्वय संप्रदाय के थे । इस भिन्नत्व की चर्चा डॉ० हीरालाल जैन व डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने की है । 8 इसी तथ्य का अनुमोदन नाथूराम प्रेमी ने भी किया है । " जिनसेन ने इस कृति को पुराण और महाकाव्य दोनों नाम से कहा है । वास्तव में यह महाकाव्य के बाह्य लक्षणों से युक्त एक पौराणिक महाकाव्य है । स्वयं आचार्य ने पुराण व महाकाव्य की परिभाषा करते हुए लिखा है : जिसमें क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाओं का वर्णन हो वह पुराण है और इस प्रकार के पुराणों में लोक, देश, पुर, राज्य, तीर्थ, दान-तप, गति तथा फल इन द वलों का वर्णन होना चाहिए | 100 पुरातनं पुराणं अर्थात् प्राचीन होने से पुराण कहा जाता है ।
६७. जैन साहित्य और इतिहास, ले० नाथूराम प्रेमी, पृ० १४० ८. महापुराण ( उत्तरपुराण) प्रस्तावना सं० पं० पन्नालाल जैन,
६६. जैन साहित्य और इतिहास ले० नाथूराम प्रेमी
१०० पर्व १-२१-२५
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