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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहिय पिता के जन्म स्थान और जीवन वृत्तान्त के उल्लेख उपलब्ध नहीं होते हैं।
ग्रंथ का रचनाकाल नौवीं शताब्दी वि० का मध्य है। शक सं०७०५ (ई० सन् ७८३) में यह पूर्ण हुआ। ग्रंथ के उल्लेखानुसार वर्धमानपुर में नन्दराजा द्वारा निर्मापित प्रभु पार्श्वनाथ के मंदिर में इसकी रचना प्रारंभ की गई, पर यहाँ पर यह रचना पूर्ण न हो सकी। दोस्तटिका नगरी की प्रजा के द्वारा निर्मित अर्चना और पूजा स्तुति से वहाँ के शांतिनाथ मंदिर में इसकी रचना पूर्ण हुई । काव्यसौष्ठव
प्रस्तुत पुराण में इतिहास, राजनीति, धर्मनीति आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है । लोक संस्थान के रूप में सृष्टिवर्णन भी ४ सर्गों में उपलब्ध है। तिरसठ शलाका पुरुषों का व राजागण, विद्याधर आदि के चरित्रों का भी वर्णन कवि ने सुंदर रूप से किया है।
इस ग्रंथ के पूर्व भद्रबाहु कृत "वसुदेव चरित" जो उपलब्ध नहीं है और संघदास गणि कृत वसुदेव हिण्डी में वसुदेव की कौतुकपूर्ण कथा वर्णित है। यह न केवल एक कथा ग्रंथ मात्र है अपितु महाकाव्य के गुणों से युक्त उच्चकोटि का काव्य भी है। इसमें प्रायः सभी रसों का वर्णन किया गया है। जरासंध और श्रीकृष्ण के बीच रोमांचकारी यद्धवर्णन में वीररस का संदर समावेश कवि द्वारा किया गया है । नेमिनाथ का वैराग्य और बलराम का विलाप जहाँ करुण रस को उभारता है वहीं द्वारिका निर्माण और यदुवंशियों का प्रभाव अद्भुत रस की द्योतक घटनाएँ प्रस्तुत करता है ।
ग्रथ की भाषा भावपूर्ण प्रौढ़ और उदात्त है। यत्र-तत्र अलंकारों की छटा भी बिखरी पडी है साथ ही विविध छंदों का संदर प्रयोग भी कवि ने किया है और अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। वसुदेव की संगीत कला को देखने के लिए १६वें सर्ग के १२० श्लोक पठनीय हैं । इनका संबंध भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से जोड़ा जा सकता है। जहाँ लोकविभाग तथा शलाकापुरुषों का वर्णन तिलोयपण्णत्ति से मेल खाता है वहाँ द्वादशांग का वर्णन राजवातिक से साम्य रखता है।
७६. सर्ग ६६ श्लोक ४२ । ७७. सर्ग ६६ श्लोक ४३
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