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________________ E जैन परंपरा में श्रीकृष्ण-साहित्य " शृंगाररस-जीवन में श्रृंगार भावना का व्यापक अस्तित्व है। इसका स्थायी भाव रति है. कविवर धनंजय ने संयोग-शृंगार और विलासलीला का सुंदर चित्रण करते हुए लिखा है क्षुपविपिनलतान्तरेजनामा–मितिसुरतव्यवहारवृत्तिरासीत् । ननु दयितपरस्परानिकार-व्यवहरणं भुवि जीवितव्य माहुः ॥3 __ छोटे-छोटे पौधों की सघन पंक्ति और लताओं की ओट में क्रीडा करते हुए लोगों की सुरत क्रिया का आचरण हुआ था। सत्य है कि प्रेमी प्रेमिकाओं के परस्पर निश्छल व्यवहार से ही संसार में जीवन प्रवाह चलता है। अलंकार वर्णन कवि ने अंतिम सर्ग को यमकालंकार से सुशोभित कर चमत्कार से सजित किया है। इस सर्ग के १४६ पद्य यमक के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण हैं । श्लेष तो समस्त पद्यों में उपलब्ध है। उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, रूपक आदि अलंकारों की सुंदर संयोजना करके कवि ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। पाण्डित्य प्रस्तुत महाकाव्य पाण्डित्य की दृष्टि से भी समृद्ध है। व्याकरण, काव्यशास्त्र, राजनीति और सामुद्रिक शास्त्र संबंधी चर्चाएं भी इस काव्य में उपलब्ध होती हैं । यथा पदप्रयोगे निपुणं विना मे सन्धौ विसर्गे च कृतावधानम् । सर्वेषु शास्त्रेषु जितश्रमं तच्चापेपि न व्याकरणं मुमोच ॥4 शब्द और धातुओं के प्रयोग में निपुण, षत्व-णत्वकरण, संधि तथा विसर्ग का प्रयोग करने में न चूकने वाले तथा समस्त शास्त्रों के परिश्रमपूर्वक अध्येता वैय्याकरणी भी व्याकरण के अध्ययन के समान चापविद्या को अचूक बना देते हैं। इस प्रकार प्रस्तुत महाकाव्य काव्य सौष्ठव के समस्त गुणों में अपना एक वैशिष्ट्य रखता है। ७३. द्विसन्धानम् सं० शिवदत्त शर्मा, निर्णयसागर प्रेस बंबई, १८९५ ई० १५/१८ - ७४. द्विसन्धानम्, सं० शिवदत्त शर्मा, निर्णयसागर प्रेस, बंबई, ३/३६ .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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