SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उपार्जन के लिए दो शक्तियों की आवश्यकता पड़ती है- स्मरण शक्ति और बौद्धिक प्रतिभा। ये दोनों शक्तियाँ ब्रह्मचर्य से प्राप्त होती हैं। ब्रह्मचर्य से ही आत्मिक, बौद्धिक, हार्दिक, विवेकीय एवं परीक्षणीय-निरीक्षणीय शक्तियाँ उपलब्ध होती हैं। ब्रह्मचर्य से ही मन, वचन और काय की पवित्रता रहती है। ___अपरिग्रह- मूर्छा ही परिग्रह है।१४ कोई भी वस्तु चाहे वह छोटी हो या बड़ी, जड़ हो या चेतन, बाह्य हो या आन्तरिक उसमें बन्ध जाना अर्थात् उसकी लगन में विवेकशून्य हो जाना परिग्रह है और इनका त्याग अपरिग्रह है। संसार के समस्त विषयों के प्रति राग तथा ममता का परित्याग कर देना ही अपरिग्रह है। अपरिग्रह के बिना हम अपने जीवन को उन्नत नहीं बना सकते हैं। धन-धान्य, घर-सामान, स्थावर, जंगम आदि कोई भी सम्पत्ति, कर्मों से दुःख पाते हुए प्राणी को दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं है।१५ 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है- यदि धन-धान्य से परिपूर्ण यह सारा लोक भी किसी एक मनुष्य को दे दिया जाय तो भी उसे सन्तोष नहीं होगा। लोभी आत्मा की तृष्णा इसी तरह दुष्पुर होती है।२८ चार भावनाएँ मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाएँ पञ्च व्रतों की प्राप्ति में उपकारक का कार्य करती हैं। भगवान् महावीर ने कहा है कि व्यक्ति को प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीवृत्ति, गुणिजनों के प्रति प्रमोदवृत्ति, दुःखी जनों के प्रति करुणावृत्ति और अयोग्य पात्रों के प्रति माध्यस्थ वृत्ति रखनी चाहिए।१६ मैत्री- मैत्री का विषय प्राणिमात्र है। दूसरे में अपनेपन की बुद्धि रखना अर्थात् अपने समान ही दूसरे को दुःखी न करने की वृत्ति अथवा भावना रखना मैत्रीवृत्ति है। जब यही मैत्रीवृत्ति प्राणिमात्र के साथ होती है तब हर मनुष्य में अहिंसक और सत्यवादिता का अंकुर प्रस्फुटित होता है। गुणिजनों के प्रति प्रमोदवृत्ति- अपने से अधिक गुणवान के प्रति आदर रखना तथा उसके उत्कर्ष को देखकर प्रसन्न होना प्रमोदवृत्ति है। इस भावना का विषय अधिक गुणवान है। अधिक गुणवान के प्रति ही ईर्ष्या या असूया आदि दुर्वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। जब तक इस वृत्ति का नाश नहीं हो जाता तब तक अहिंसा, सत्य आदि व्रत नहीं टिक सकते हैं। __ करुणावृत्ति- प्राणिमात्र के प्रति करुणा की भावना रखनी चाहिए। इस भावना का विषय केवल क्लेश से पीड़ित दुःखी प्राणी है, क्योंकि दुःखी, दीन व अनाथ को ही अनुग्रह तथा मदद की अपेक्षा रहती है। यदि किसी पीड़ित को देखकर भी अनुकम्पा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy