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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय अनुग्रह का भाव पैदा नहीं होता है तो अहिंसा का पालन असम्भव है। इसलिए जैन धर्म में करुणा की भावना आवश्यक मानी गयी है।
___ माध्यस्थ्यवृत्ति- माध्यस्थ्य भावना का विषय अविनीत या अयोग्य पात्र है। माध्यस्थ्य का अर्थ होता है- तटस्थता। जब नितान्त संस्कारहीन एवं अयोग्य पात्र मिल जाये जिसे सुधारने के सभी प्रयत्न विफल दिखायी दें तो ऐसे व्यक्ति के प्रति तटस्थ भाव रखना ही श्रेयस्कर है। २२ दस धर्म
जैनाचार्यों ने दस प्रकार के धर्मों का वर्णन किया है जो गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए समान रूप से आचरणीय है। 'आचारांग', 'मूलाचार', 'स्थानांग', 'समवायांग' और 'तत्त्वार्थ' आदि अनेक ग्रन्थों में इन धर्मों का वर्णन विस्तार से किया गया है। आचारांग में आठ सामान्य धर्मों का उल्लेख मिलता है। कहा गया है कि जो धर्म में उत्थित अर्थात् तत्पर हैं उनको और जो धर्म में उत्थित नहीं हैं उनको भी निम्नलिखित बातों का उपदेश देना चाहिए- शान्ति, विरति (विरक्ति), उपाम, निवृत्ति, शौच, आर्जव, मार्दव और लाघव।१७ 'स्थानांग'१८ और 'समवायांग'१९ में भी इन्हीं धर्मों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि 'स्थानांग' और 'समवायांग' की सूची ‘आचारांग' से थोड़ी भिन्न है। 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार दस धर्म निम्न हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनता और ब्रह्मचर्य।२० इन दस धर्मों का विवेचन निम्न प्रकार से है
क्षमा- अनुचित व्यवहार के बाद भी किसी व्यक्ति के प्रति मन में क्रोध को न लाना, सहनशील रहना, क्रोध पैदा न होने देना और क्रोध को विवेक तथा नम्रता से निष्फल कर डालना क्षमा है। ‘दशवैकालिक' में क्रोध को प्रीति का विनाशक कहा गया है।२१ क्रोध कषाय के उपशमन के लिए क्षमा धर्म का विधान है। क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है। २२ पं०सुखलाल संघवी ने क्षमा की साधना के पाँच उपाय बताये हैं२२--
(क) अपने में क्रोध के निमित्त के होने या न होने का चिन्तन करना। (ख) क्रोधवृत्ति के दोषों पर विचार करना। (ग) बाल स्वभाव का विचार करना। (घ) अपने किये हुए कर्म के परिणाम पर विचार करना। (ङ) क्षमा के गुणों का चिन्तन करना।
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