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जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य
'गच्छाचार' में १३७ गाथाएं हैं जो 'महानिशीथ', 'बृहत्कल्प' व 'व्यवहारसूत्रों' पर आधारित हैं । ६७ विमलसूरि के शिष्य विजयमलगणि ने इस पर टीका लिखी है। प्रारम्भ में भगवान् महावीर को नमस्कार कर असदाचारी गच्छ और सदाचारी गच्छ में रहने के क्या फल होते हैं इसका वर्णन है। आध्यात्मिक साधना के लिए श्रमण को जीवनपर्यन्त गच्छ में ही रहने पर जोर दिया गया है। तत्पश्चात् गुरु-शिष्य के कर्तव्यों को बताते हुए कहा गया है कि जो गुरु शिष्य के द्वारा श्रमणाचार के विरुद्ध कार्य करने पर भी प्रायश्चित्त आदि देकर उसका शुद्धिकरण नहीं करता, शिष्य को हितमार्ग पर नहीं लगाता वह गुरु शिष्य के लिए शत्रु के समान है। इसी प्रकार यदि गुरु साधना के मार्ग से च्युत होकर असद्मार्ग की ओर जाता है तो शिष्य का कर्तव्य है कि वह उन्हें सन्मार्ग अर्थात् धर्ममार्ग की ओर बढ़ाये, यदि वह नहीं बढ़ाता है तो वह शिष्य भी शत्रु के समान है । ६८ तत्पश्चात् असद्गुरु के लक्षणों का निरूपण किया गया है। गुरु आचार की प्रतिमूर्ति समझा जाता है, किन्तु कुछ भ्रष्टाचारी आचार्य, भ्रष्टाचारियों की अपेक्षा करने वाले आचार्य तथा उन्मार्ग स्थित आचार्य, ये तीनों मोक्षमार्ग का विनाश करनेवाले होते हैं । ६९
गच्छ के महत्त्व को बतलाते हुए लिखा गया है कि गच्छ महान प्रभावशाली होता है । उसमें रहने से महानिर्जरा होती है तथा सारणा, वारणा, प्रेरणा आदि से नये दोषों की उत्पत्ति रुक जाती हैं । ७० जिस गच्छ में दान, शील, तप और भावना आदि चार धर्मों का आचरण करनेवाले गीतार्थ मुनि अधिक हों वह सुगच्छ है । ७१
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श्रमणियों को गच्छ में किस प्रकार रहना चाहिए? किस प्रकार सोना चाहिए आदि मर्यादायों का भी वर्णन मिलता है। ७२
चन्द्रवेध्यक
'चन्द्रवेध्यक' का अर्थ होता है- राधावेद । मृत्यु के समय जरा भी प्रमाद का आचरण करने वाला सर्वसाधन से सम्पन्न साधक उसी प्रकार सिद्धि को नहीं प्राप्त कर पाता है जिस प्रकार अन्तिम समय में जरा भी प्रमाद करनेवाला वेधक राधावेद का वेधन नहीं कर पाता है। अतः आत्मार्थी को सदैव अप्रमादी रहना चाहिए । ७३
प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्नलिखित सात विषयों को विस्तृत रूप में विवेचित किया गया है— विनय, आचार्यगुण, शिष्यगुण, विनयनिग्रहगुण, ज्ञानगुण, चरणगुण एवं मरणगुण । ७
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मूलाचार
'मूलाचार' के रचयिता वट्टकेराचार्य माने जाते हैं। कुछ विद्वानों का यह मानना
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