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________________ ४४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन लिए प्रायश्चित्त तथा मृषावादियों को पदवी न प्रदान करने का निरूपण किया गया है। आचार्य तथा उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित होने की योग्यताओं को बताते हुए कहा गया है- आचार्य वही बन सकता है जो कम से कम पाँच वर्ष का दीक्षित हो, श्रमण की आचारसंहिता में कुशल हो, ‘दशाश्रुतस्कन्धकल्प', 'बृहत्कल्प', 'व्यवहार' आदि का ज्ञाता हो। उपाध्याय वही बन सकता है जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला हो, आगम का मर्मज्ञ हो, प्रायश्चित्तशास्त्र का पूर्ण ज्ञाता हो, चरित्रवान हो और बहुश्रुत हो। लेकिन अपवाद रूप में एक दिन दीक्षा पर्यायवाला भी आचार्य अथवा उपाध्याय बन सकता है पर उसके लिए प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोदकारी, अनुमत, बहुमत तथा गुणसम्पन्न होना अनिवार्य है। चतुर्थ उद्देशक में आचार्य और उपाध्याय के साथ कम से कम एक और वर्षावास में दो साधु का होना आवश्यक बताया गया है। आचार्य की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उनके अभाव में कैसे रहना चाहिए और किस तरह किसी मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिए इस पर विचार किया गया है।६५ षष्ठ उद्देशक में श्रमण-श्रमणी के कर्तव्यों को प्रकाशित करते हुये आचार्य तथा उपाध्याय के पाँच अतिशय (विशेषाधिकार) बताये गये हैं- यदि आचार्य या उपाध्याय बाहर से उपाश्रय में आवे तो उनके पाँव पोंछकर साफ करना, उनके प्रस्रवण अर्थात् मल-मूत्र आदि का यतनापूर्वक भूमि पर त्याग करना, यथाशक्ति उनकी वैयावृत्य करना, उपाश्रय के भीतर उनके साथ रहना, उपाश्रय से बाहर जाने पर उनके साथ जाना आदि। सप्तम उद्देशक में साधु-साध्वियों के आचार की भिन्नता, पदवी प्रदान करने का समुचित समय आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। गच्छाचार 'गच्छाचार' सातवाँ प्रकीर्णक है। प्रकीर्णक का अर्थ होता है- विविधा 'नन्दीसूत्र' में मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थङ्कर द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते हैं। इनकी संख्या १४००० (चौदह हजार) कही गयी है, किन्तु वर्तमान में इनकी संख्या मुख्यतया १० (दस) मानी जाती है। लेकिन संख्या को लेकर विद्वानों में मतभेद देखा जाता है। कोई 'मरणसमाधि' और 'गच्छाचार' के स्थान पर 'चन्द्रवेध्यक' और 'वीरस्तव' को गिनते हैं तो कोई 'देवेन्द्रस्तव' और 'वीरस्तव' को एक कर देते हैं तथा संस्तारक को नहीं गिनते, किन्तु इनके स्थान पर 'गच्छाचार' और 'मरणसमाधि' का उल्लेख करते हैं।६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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