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जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य ३९ है कि द्वादशांगी से पहले पूर्व-साहित्य निर्मित किया गया था। इसी से उसका नाम पूर्व रखा गया। इनकी संख्या चौदह है।४३ वीरसेनाचार्य का कहना है कि पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा की श्रुतराशि है। श्रमण भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती होने के कारण उसे 'पूर्व' कहा गया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि महावीर से पूर्व भी साहित्य थे क्योंकि महावीर से पहले तेइस तीर्थङ्कर हो चुके थे।
महावीर के बाद के साहित्य जिनमें उनके उपदेश संकलित हैं, दो भागों में विभक्त हैं- अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्या अंग-प्रविष्ट वे शास्त्र हैं जो गणधरों के द्वारा सूत्र रूप में बनाये गये हैं या जो गणधर के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित हैं। अंगबाह्य वे हैं जो स्थविरों अर्थात् बाद के आचार्यों द्वारा रचित हैं। आचार्य अकलंक ने कहा है कि आरातीय आचार्यों के द्वारा निर्मित आगम अंग प्रतिपादित अर्थ के निकट या अनुकूल होने के कारण अंगबाह्य कहलाते हैं। ५ अंग-प्रविष्ट के अन्तर्गत द्वादशांगी आते हैं।
__ भाषा की दृष्टि से जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है। वैयाकरण इसे आर्ष प्राकृत कहते हैं। सम्पूर्ण जैन साहित्य का संकलन चार महासम्मेलनों के द्वारा किया गया है। प्रथम सम्मेलन वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में अर्थात् १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में आचार्य भद्रबाहु के समय हुआ जिनका काल ई०पू० ४थी शती का दूसरा दशक है।४६ आगम संकलन का दूसरा महासम्मेलन वीर निर्वाण ८२७ और ८४० के बीच आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में हुआ। इसे माथुरी वाचना के नाम से जाना जाता है। ठीक इसी समय दक्षिण और पश्चिम भारत में विचरण करने वाले श्रमणों की तृतीय वाचना आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में हुई जिसे वल्लभी वाचना या नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं। ७ चतुर्थ महासम्मेलन वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी में (९८० या ९९३ वर्ष पश्चात्) वल्लभी में आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में हुआ। आचार्य देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने एक और महासम्मेलन की चर्चा की है और उसे ग्रन्थ संकलन का द्वितीय प्रयास बताया है। यह सम्मेलन द्वितीय शती के मध्य सम्राट खारवेल के समय हुआ था।८
शिक्षा से सम्बन्धित ग्रन्थ अंग, उपांग, मूल, छेद, प्रकीर्णक आदि जैन साहित्य के विभिन्न भाग हैं जिनके अन्तर्गत जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति निर्बाध रूप से प्रवाहित हो रही है। जैन शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न ग्रन्थ हैं, यथा-- 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'स्थानांग', 'समवायांग', 'ज्ञाताधर्मकथा', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक', 'दशाश्रुतस्कन्ध', 'बृहत्कल्प', 'व्यवहारसूत्र',
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