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________________ जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन ‘गच्छाचार’, ‘चन्द्रवेध्यक' आदि। इनमें से प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है उत्तराध्ययन जैनागमों में मूलसूत्रों का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । सामान्य रूप से मूल सूत्रों की संख्या चार है, जिसमें 'उत्तराध्ययन' को प्रथम स्थान प्राप्त है। इस ग्रन्थ में महावीर ने अपने अन्तिम चौमासे में जो बिना पूछे हुए ३६ प्रश्नों के उत्तर दिये थे, उन्हीं का संकलन है। पाश्चात्य विद्वान् लायमन का कहना है कि यह सूत्र उत्तर अर्थात् बाद का होने से अर्थात् अंग ग्रन्थों की अपेक्षा उत्तरकाल का रचा हुआ होने के कारण 'उत्तराध्ययन' कहलाता है । ४९ यह छत्तीस अध्ययनों में विभक्त है। इसमें विनय, परीषह, अकाममरण, प्रव्रज्या, यज्ञीय, सामाचारी आदि के वर्णन हैं। आचार्य भद्रबाहु ने इस ग्रन्थ पर नियुक्ति तथा जिनदासगण ने चूर्णि लिखी है। वादिवेताल शान्तिसूरि ने 'शिष्यहिता टीका' और नेमिचन्द्र ने 'शान्तिसूरि की टीका' के आधार से 'सुखबोध टीका' लिखी है। इसी प्रकार लक्ष्मीवल्लभ, जयकीर्ति, कमलसंयम, भावविजय, मुनि जयन्तविजय आदि विद्वानों ने भी टीकाएँ लिखी हैं। भाषा और विषय की दृष्टि से यह प्राचीन ग्रन्थ है जिसकी पुष्टि शार्पेन्टियर, जैकोबी, विण्टरनित्ज आदि विद्वानों ने भी की है। पाश्चात्य विद्वान् जार्ज शार्पेन्टियर ने इस ग्रन्थ की अंग्रेजी प्रस्तावना लिखी है तथा इसके मूल पाठ में भी संशोधन किया है। एच० जैकोबी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है । ५° ४० प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अध्ययन में विनय का अर्थ बताते हुए उसके अनुवर्तन, प्रवर्तन, अनुशासन, शुश्रुषा और शिष्टाचार के परिपालन पर बल दिया गया है । विनीत तथा अविनीत शिष्य के लक्षणों, उनके कर्तव्यों आदि को प्रकाशित करते हुए कहा गया है कि जो गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला, गुरु के समीप रहनेवाला तथा उनके मनोभावों को जाननेवाला है वह विनीत शिक्षार्थी है तथा इसके विपरीत आचरण करनेवाला अविनीत शिक्षार्थी कहलाता है । अविनीत शिक्षार्थी ठीक उसी प्रकार है जैसे मरियल घोड़ा बार-बार चाबुक खाकर सही मार्ग पर आता है, जब कि अच्छे नस्ल का घोड़ा चाबुक देखते ही सही मार्ग पर चलने लगता है, वैसे ही विनीत शिष्य अकीर्ण घोड़े की तरह इंगित मात्र से ही पाप- -कर्म का त्याग कर देता है । ५१ शिक्षार्थी के कर्तव्यों का निरूपण करते हुये कहा गया है- वाणी अथवा कर्म से प्रकट रूप में अथवा गुप्त रूप में गुरुजनों के विरुद्ध किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करनी चाहिए । ५२ यदि आचार्य क्रुध हो जाएँ तो उन्हें प्रेमपूर्वक प्रसन्न करना चाहिए, हाथ जोड़कर उनकी क्रोधाग्नि शान्त करनी चाहिए और उन्हे विश्वास दिलाना चाहिए कि भविष्य में वह ऐसा कार्य नहीं करेगा । ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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