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________________ ३८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन हम जानते हैं कि आँख और जिह्वा एक-दूसरे से भिन्न हैं, फिर भी वे किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से जुड़े हुये हैं, एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अत: कहा जा सकता है कि दोनों को मिलानेवाला कोई तीसरा है और वह है- मन। पं० राहुल सांकृत्यायन का मानना है कि मन से परे आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है, अर्थात् मन ही आत्मा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध ने आत्मा की व्यवहारिक सत्ता को स्वीकार किया है। आत्मा अनित्य है, क्षण-क्षण बदलती रहती है, लेकिन उसके अविरल प्रवाह को हम भ्रमवश नित्य मान लेते हैं। यह ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार हमें भ्रमवश एक ही दीपक रात भर जलता हुआ प्रतीत होता है जबकि यह अयथार्थ है, क्योंकि रात के पहले प्रहर की दीपशिखा दूसरी थी, दूसरे प्रहर की उससे भिन्न। किन्तु देखने वाले को एक ही दीपशिखा जान पड़ती है जबकि वह प्रतिक्षण बदलती रहती है। प्रवाह की दो अवस्थाओं के बीच एक क्षण का भी अन्तर नहीं रहता है। ठीक इसी प्रकार आत्मा भी प्रतिक्षण बदलती रहती है। इस प्रकार बुद्ध का अनात्मवाद, आत्मा का न तो बिल्कुल निषेध ही करता है और न उसकी सत्ता को स्वीकार ही करता है। जैन साहित्य जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति का मूलाधार आगम-साहित्य है। आगम-साहित्य की सुदृढ़ नींव पर ही जैन दर्शन का भव्य प्रासाद खड़ा है। आगम को परिभाषित करते हुए 'विशेषावश्यकभाष्य' में कहा गया है- 'जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, वह शास्त्र आगम या श्रुतज्ञान कहलाता है।'३८ आचार्य मल्लिषेण के अनुसार 'आप्तवचन से उत्पन्न अर्थ यानी पदार्थ ज्ञान आगम कहलाता है। उपचार से आप्तवचन भी आगम माना जाता है। ३९ इसी प्रकार 'न्यायसूत्र' में कहा गया है कि 'आप्तकथन आगम है। " आगम के लिए विभिन्न शब्दों के प्रयोग देखने को मिलते हैं, यथा- सत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आगम,४१ आप्तवचन, ऐतिह्य, आम्नाय, जिनवचन २ तथा श्रुत; किन्तु वर्तमान में आगम शब्द ही ज्यादा प्रचलित है। सम्पूर्ण जैन-साहित्य दो भागों में विभक्त है। पहला वह भाग जिसके अन्तर्गत महावीर से पहले के साहित्य हैं जिन्हें पूर्व के नाम से जाना जाता है और दूसरा वह भाग जिसमें महावीर के बाद के साहित्य हैं जिन्हें अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। पूर्व साहित्य के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। आचार्य अभयदेव का कहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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