SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन मनुष्यत्व, सोना में सोनापन। मनुष्य में यदि मनुष्यत्व न हो तो वह और कुछ हो सकता है, मनुष्य नहीं। वैसे ही यदि सोना में सोनापन न हो तो वह अन्य कोई द्रव्य होगा, सोना नहीं। गुण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है। वह कभी नष्ट नहीं होता और न बदलता ही है क्योंकि उसके नष्ट होने से वस्तु नष्ट हो जायेगी। गुण वस्तु का आन्तरिक धर्म होता है जो वस्तु की बाह्याकृतियों अर्थात् उसके रंग-रूप को निर्धारित करता है। इसी प्रकार जो बदलता रहता है, उत्पन्न और नष्ट होता रहता है उसे पर्याय कहते हैं, जैसेमनुष्य कभी बच्चा, कभी युवा, और कभी बूढ़ा रहता है। गुण जो वस्तु में स्थायी रहता है, जैसे मनुष्य बच्चा हो या बूढ़ा, स्त्री हो या पुरुष, मोटा हो या पतला, उसमें मनुष्यत्व रहेगा ही। किन्तु जब कोई व्यक्ति बालक से युवा होता है तो उसका बालपन नष्ट हो जाता है और युवापन उत्पन्न होता है। ठीक इसी प्रकार सोना कभी अंगूठी, कभी माला, कभी कर्णफूल के रूप में देखा जाता है जिसमें सोना का अंगूठी वाला रूप नष्ट होता है तो माला का रूप बनता है, माला का रूप नष्ट होता है तो कर्णफूल का रूप बनता है। ये बदलनेवाले धर्म हमेशा उत्पन्न एवं नष्ट होते रहते हैं और गुण स्थिर रहता है। अत: जगत के सभी पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति एवं विनाश इन तीन धर्मों से युक्त होते हैं। एक ही साथ एक ही वस्तु में तीनों धर्मों को देखा जा सकता है। मिशाल के तौर पर एक स्वर्णकार स्वर्णकलश तोड़कर मुकुट बना रहा है। उसके पास तीन ग्राहक पहुँचते हैं। जिनमें से एक को स्वर्णघट चाहिए, दूसरे को स्वर्णमुकुट चाहिए, और तीसरे को केवल सोना। लेकिन स्वर्णकार की प्रवृत्ति देखकर पहले ग्राहक को दुःख होता है, दूसरे को हर्ष और तीसरे को न तो दुःख ही होता है और न हर्ष अर्थात् वह मध्यस्थ भाव की स्थिति में होता है। तात्पर्य यह है कि एक ही समय में एक स्वर्ण में विनाश, उत्पत्ति और ध्रुवता देखी जा सकती है। इसी आधार पर जैन दर्शन में तत्त्व को परिभाषित करते हुये कहा गया है- सत् उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य युक्त है- 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।' २३ जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से जो लोग परिचित नहीं हैं वे तुरन्त यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि एक ही वस्तु में ध्रुवता, उत्पत्ति और विनाश कैसे हो सकता है? क्योंकि स्थायित्व और अस्थायित्व दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। अत: एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है? जैन दर्शन इसका समाधान करते हुये कहता है कि कोई भी वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव है, स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है, उसमें उत्पत्ति और विनाश है। कोई भी वस्तु सर्वथा सत् या असत् नहीं हो सकती। सभी वस्तु सत्-असत्, नित्य-अनित्य, भावरूप-अभावरूप हैं। अत: विरोधी धर्मों का समन्वय करना ही जैन दर्शन का अनेकान्तवाद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy