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जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य अहिंसा
जैन परम्परा में अहिंसा का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। अहिंसा को परिभाषित करते हुए आचारांग में कहा गया है- सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब तत्त्वों को न मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति के द्वारा मरवाना चाहिए, न बलात् पकड़ना चाहिए, न परिताप देना चाहिए, न उन पर प्राणापहार उपद्रव करना चाहिए; यह अहिंसा, रूप धर्म ही शुद्ध है। १८ अहिंसा की पूर्ण परिभाषा 'आवश्यकसूत्र' में मिलती है जिसके अनुसार किसी भी जीव की तीन योग (अर्थात् मन, वचन और काय) और तीन करण (अर्थात् करना, करवाना और अनुमोदन करना) से हिंसा न करना ही अहिंसा है।१९
_अहिंसा के दो रूप देखे जाते हैं- भाव-अहिंसा तथा द्रव्य-अहिंसा।२० मन में हिंसा न करने की भावना का जाग्रत होना भाव-अहिंसा है, यथा- कोई व्यक्ति संकल्प करता है कि मैं किसी जीव का घात नहीं करूँगा। मन में आये हुए अहिंसा भाव को क्रियारूप देना द्रव्य-अहिंसा है। २१
__ अहिंसा निषेधात्मक ही नहीं, बल्कि विधेयात्मक भी होती है। जैन-दर्शन में निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों ही प्रकार की अहिंसा मानी गयी हैं। निषेधात्मक और विधेयात्मक अहिंसा का विवेचन करते हुए डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा ने लिखा हैनिषेध का अर्थ होता है किसी चीज को रोकना, न होने देना। अत: निषेधात्मक अहिंसा का मतलब होता है किसी भी प्राणी के प्राणघात का न होना या किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न देना। अहिंसा का निषेधात्मक रूप ही अधिक लोगों के ध्यान में आता है, किन्तु अहिंसा सिर्फ कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं को न करने में ही नहीं होती, बल्कि कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं के करने में भी होती है, जैसे- दया करना, सहायता करना, दान करना आदि।र इस प्रकार जैन दर्शन का अहिंसा-सिद्धान्त संसार के समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान प्रिय मानने की प्रेरणा देता हुआ मैत्री भावना का पाठ सिखाता है। अनेकान्त
अनेकान्तवाद जैन दर्शन का आधार है। जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा इसी अनेकान्त के सिद्धान्त पर आधारित है। 'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् किसी भी वस्तु अथवा तत्त्व के अनन्त धर्म या लक्षण होते हैं। चाहे वह पदार्थ या तत्त्व छोटा-सा कण हो या विराट हिमालय, उसके अनन्त धर्म होते हैं। इन अनन्त धर्मों के दो प्रकार होते हैं--- गुण और पर्याय। जो धर्म वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता उन्हें गुण कहते हैं, यथा- मनुष्य में
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