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________________ २८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन श्रमण, ब्राह्मण एवं देवताओं द्वारा दिया हुआ नहीं है वरन् बोधिमूल में विमोक्ष-पुरस्सर सर्वज्ञता के अधिगम के साथ उपलब्ध एक प्रज्ञप्ति है।१७ सामान्यतया बुद्ध का अर्थ होता है- ज्ञाता, समझनेवाला। बुद्ध व्यक्तिवाचक नाम नहीं है बल्कि जातिवाचक सम्बोधन है। जिसने बोधत्व प्राप्त कर लिया है वह बुद्ध है। ___ महात्मा बुद्ध के समय तक उनके अनुयायियों में किसी प्रकार का मतभेद उत्पन्न नहीं हुआ था। लेकिन समय के साथ-साथ अनुयायियों में विचार-भेद होना स्वाभाविक था। यह प्रकृति का नियम भी है कि देश और काल के अनुसार विचार बदलते रहते हैं। हर व्यक्ति एक ही सिद्धान्त को अपने-अपने अनुरूप ढालना चाहता है। बुद्ध के निर्वाण के बाद संघ दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया - हीनयान तथा महायान। हीनयान और महायान में मुख्य अन्तर यह है कि हीनयान का आदर्श संकुचित है तथा महायान का सार्वभौम। हीनयान स्वावलम्बन पर अधिक बल देता है तो महायान दूसरों के उद्धार पर। पुन: हीनयान और महायान की दो-दो शाखायें हैं- वैभाषिक और सौत्रान्तिक तथा योगाचार और माध्यमिक। आगे चलकर बौद्ध संघ अट्ठारह सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। जैन धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि __ भारतीय विचारधारा की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि धर्म और दर्शन साथ-साथ चलते हैं। भारतीय दार्शनिकों (चार्वाक को छोड़कर) ने कभी धर्म और दर्शन को अलग स्वीकार नहीं किया है। यहाँ जो दर्शन है वही धर्म भी है। इनमें निकटता और पूरकता के सम्बन्ध पाये जाते हैं। व्यवहार में धर्म जिस रूप में देखा जाता है उसका सिद्धान्त पक्ष दर्शन में ही होता है। दर्शन भी अपने को लोगों के पास धर्म के ही माध्यम से पहुँचाता है। धर्म दर्शन के बिना अन्धविश्वास के सिवा और कुछ नहीं रह जाता वह खोखला हो जाता है। इसी तरह दर्शन भी धर्म के बिना पंग हो जाता है। भारतीय दर्शन में चार्वाक को छोड़कर सभी के धर्म भी हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक दर्शनों के क्रमश: जैन, बौद्ध और वैदिक धर्म भी हैं। इसलिए प्राचीनकाल में प्रतिपादित दर्शन आज भी जिज्ञासा एवं रुचि के साथ पढ़ा एवं समझा जा रहा है। सम्पूर्ण जैन दर्शन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- व्यवहार-पक्ष और विचार-पक्ष। जैन दर्शन के जो भी व्यवहार-पक्ष अथवा आचार-पक्ष हैं वे अहिंसा पर आधारित हैं और जितने भी विचारपक्ष हैं वे अनेकान्त पर आधारित हैं। अहिंसा श्रद्धाप्रधान है और अनेकान्त तर्कप्रधान। भारतीय दर्शन में जैन दर्शन का अपना एक वैशिष्ट्य है। अहिंसा, अनेकान्तवाद और कर्मवाद- ये तीन ऐसे सिद्धान्त हैं जिनके कारण भारतीय दर्शन में जैन दर्शन : का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। अहिंसा, अनेकान्तवाद और कर्मवाद का संक्षिप्त परिचय निम्न है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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