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________________ जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य अनेकान्तवाद के व्यावहारिक पक्ष को स्याद्वाद के नाम से विभूषित किया जाता है। स्याद्वाद अनेकान्तवाद का ही विकसित रूप है। स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक है। स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक ही हैं। इसका कारण यह है कि स्याद्वाद में जिस पदार्थ का कथन होता है, वह अनेकान्तात्मक होता है। दोनों में यदि कोई अन्तर है तो मात्र शब्दों का। स्याद्वाद में स्यात् शब्द की प्रधानता है तो अनेकान्तवाद में अनेकान्त की। किन्तु मूलत: दोनों एक ही हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' में कहा हैअनेकान्तात्मक अर्थ के कथन को स्याद्वाद कहते हैं।२४ स्याद्वाद का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुये कहा गया है- स्यादिति वादः स्याद्वादः।२५ यहाँ हमें स्यात् शब्द के दो अर्थ देखने को मिलते हैं- पहला अनेकान्तवाद और दूसरा अनेकान्त के कथन करने की शैली। जैन दार्शनिकों ने अनेकान्त एवं स्यात् दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। इन दोनों शब्दों के पीछे एक ही हेतु रहा है और वह है- वस्तु की अनेकान्तात्मकता। यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्तवाद शब्द से भी प्रकट होती है और स्याद्वाद शब्द से भी। अत: स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक ही हैं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अन्तर है तो इतना कि एक प्रकाशक है तो दूसरा प्रकाश्य, एक व्यवहार है तो दूसरा सिद्धान्त। कर्म-सिद्धान्त अहिंसा और अनेकान्त के समान जैन दर्शन का कर्मवाद भी व्यापक और विशाल है। प्रत्येक कार्य को सम्पन्न करने के लिए किसी न किसी कारण की आवश्यकता होती है क्योंकि कारण के अभाव में कार्य नहीं होता। प्रत्येक कारण किसी न किसी कार्य को उत्पन्न करता है। यह कार्य-कारण सम्बन्ध ही जगत की विचित्रता और विविधता की भूमिका है। जैन दर्शन में कर्म-विज्ञान पर बहुत ही गम्भीर, विशद और वैज्ञानिक पद्धति से चिन्तन किया गया है। जैन दर्शन का यह मानना है कि जब आत्म-प्रदेश में कम्पन होता है तब उस कम्पन से पुद्गल के परमाणु पुंज आकर्षित होकर आत्मा के साथ मिल जाते हैं। पुद्गल परमाणु पुंज का आत्मा के साथ मिलना ही कर्म है। 'प्रवचनसार' के टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है- आत्मा के द्वारा प्राप्य क्रिया को कर्म कहते हैं।२६ आचार्य अकलंकदेव का कहना है कि जिस प्रकार पात्र विशेष में रखे गये अनेक रसवाले बीज, पुष्प तथा फलों का मद्य रूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों के परिस्पन्दन रूप योग के कारण कर्म रूप परिणमन होता है।२७ जैन दर्शन कर्म को स्वतन्त्र तत्त्व मानता है। कर्म अनन्त परमाणुओं का स्कन्ध है। कर्म के आठ प्रकार हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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