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जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
प्राचीनकाल में शिक्षा प्रारम्भ करने से पहले विद्यार्थी का उपनयन संस्कार होता था। उस संस्कार के बाद गुरु शिक्षा आरम्भ करते थे। विद्यार्थी के लिए सदाचार का पालन करना, स्वास्थ्य को उत्तम बनाना आवश्यक समझा जाता था। यही कारण है कि नैतिक शिक्षा तत्कालीन शिक्षा का आधार स्तम्भ बन गयी थी जिसमें चारित्रिक उन्नति का आदर्श एक प्रमुख स्थान रखता था। जब से विद्यार्थी को गुरु शिक्षा देना स्वीकार करते थे तब से लेकर एक निश्चित अवधि तक उसे बड़े अनुशासन में रहना पड़ता था। चारित्रिक विकास के साथ-साथ स्मरणशक्ति का भी प्रमुख स्थान था। विद्यार्थी को यम, नियम आदि अनेक व्रतों का पालन भी करना पड़ता था। गुरुकुल में समस्त विद्याओं का अध्ययन-अध्यापन गुरु-शिष्य एक साथ रहकर किया करते थे। उनके आवास भोजनादि का प्रबन्ध भी वहीं होता था। गुरुकुल में सच्चरित्र एवं सुसंस्कृत विद्यार्थी ही प्रवेश का अधिकारी होता था। गुरुकुल के पवित्र वातावरण में विद्याध्ययन करनेवाले छात्र विनयी होते थे।
आधुनिक प्रसंग में उपर्युक्त कसौटियाँ व्यर्थ हो गयी हैं, क्योंकि लाखों-करोड़ों में कुछ ही ऐसे छात्र होते हैं जो शिष्यता की कसौटी पर खरा उतरने की क्षमता रखते हैं। आज शिक्षा जगत के लिए बढ़ता हुआ छात्र असन्तोष एक चुनौती बना हुआ है। विभिन्न कालेजों, विश्वविद्यालयों के छात्रों द्वारा अपनी मांगों के समर्थन में आन्दोलन चलाये जाते हैं। आये दिन यह सुनने या समाचारपत्रों में पढ़ने को मिलता है कि छात्रों ने विद्यालयों में तोड़फोड़ किया, अध्यापकों की पिटाई कर दी, विद्यालय, कार्यालय
और सरकारी दफ्तरों में आग लगा दी; बसें, मोटरें आदि जला दी। इसका कारण क्या है? जहाँ तक मेरा मानना है कि इसका मूल कारण है - उद्देश्यहीन शिक्षा। आजकल विद्यार्थी स्कूल-कालेजों में दाखिला तो ले लेते हैं लेकिन उन्हें यह भी पता नहीं होता कि उनकी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? फलत: वे विभिन्न राजनीतिक दलों के शिकार हो जाते हैं। यही कारण है कि वे अपनी छोटी-छोटी माँगों के लिए आन्दोलन का सहारा लेते हैं। शिक्षण-पद्धति
गुरु और शिष्य के बाद तृतीय स्थान शिक्षण-विधि का है। प्राचीनकाल में शिक्षणविधि के तीन महत्त्वपूर्ण अंग थे- श्रवण, मनन और निदिध्यासन। गुरु का उपदेश सुनना, प्राप्त उपदेश पर मनन करना और शंका उपस्थित होने पर तर्क कर पुन: गुरु से पूछना क्रमश: श्रवण, मनन और निदिध्यासन है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के अतिरिक्त स्वाध्याय भी शिक्षण-विधि के अन्तर्गत आता है। स्वाध्याय शिक्षण की वह विधि है जिस पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता, यह विधि प्राचीनकाल से चली
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