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________________ शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व १८३ प्रव्रज्या संस्कार प्रव्रज्या संस्कार बौद्ध शिक्षा-प्रणाली का प्रथम संस्कार है। ‘पबज्जा' पालि भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है - बाहर जाना। बाहर जाने का तात्पर्य छात्र की पूर्व स्थिति से है अर्थात् अपने परिवार से अलग होकर बौद्ध संघ में प्रवेश करना। प्रव्रज्या संस्कार सम्पन्न होने से पूर्व विद्यार्थी से पूछा जाता था कि वह पितृहन्ता, मातृहन्ता या अर्हत् हन्ता तो नहीं है? यदि ये दोष विद्यमान रहते थे तो उसे प्रव्रज्या देने का विधान नहीं था।७५ इन दोषों से रहित व्यक्ति ही प्रव्रज्या के योग्य समझा जाता था। तत्पश्चात् उसे दिनचर्या की कठिनाइयों से परिचित कराया जाता था ताकि वह प्रव्रजित होने के पूर्व इन कठिनाइयों से अवगत हो जाये, जैसे- भूमि पर घास बिछाकर सोना, पेड़ों की जड़ों पर बैठना, चाण्डाल के यहाँ भी भिक्षा माँगना, श्वान के समान थोड़ा भोजन करना, श्मशान में रहना, जंगलों में भ्रमण करना, वन्य पशुओं के भयानक गर्जन को सुनना,७६ रुधिर मांस का त्याग७७ आदि। नन्द को इन सब कठिनाइयों को समझाने के बाद ही प्रव्रजित किया गया था।७८ नन्द को प्रव्रजित करने से पहले तथागत ने नन्द की स्वीकृति ले ली थी। प्रव्रजित होने से पूर्व विद्यार्थी की स्वीकृति अनिवार्य होती थी, क्योंकि ‘सौन्दरनन्द' में वर्णन आया है - 'जब तथागत ने नन्द को दीक्षा देने के लिए कहा तब नन्द ने आनन्द से आकर कहा “मैं प्रव्रजित नहीं होऊँगा।'७९ तब नन्द को तथागत ने पुनः समझाया।८° जब नन्द ने स्वीकृति दी तभी उन्हें प्रव्रजित किया गया। विद्यार्थी की स्वीकृति के साथ-साथ माता-पिता की भी स्वीकृति अनिवार्य है,८१ यदि वह विवाहित हो तो पत्नी की स्वीकृति चाहिए। यह संस्कार पन्द्रह वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को नहीं कराया जाता था।८२ प्रव्रज्या की विधि सर्वप्रथम बालक के सिर, दाढ़ी और मूंछ का मुण्डन किया जाता था।८३ बौद्ध साहित्य में इस क्रिया को केशकर्म,८४ जटाकर्म,८५ चूड़ाकरण-६ तथा मुण्डन ७ आदि नामों से अभिहित किया गया है। तदुपरान्त वह कषाय वस्त्र धारण करता था।८८ उसके बाद एक कन्धे पर उपरना कर भिक्षुओं की पाद वन्दना करता था तथा संघ के श्रेष्ठ भिक्षु बालक को उकडूं बैठाकर, हाथ जोड़वाकर शरणत्रयी बोलने को कहते थे- (१) बुद्धं शरणं गच्छामि, (२) संघं शरणं गच्छामि, (३) धम्मं शरणं गच्छामि। इस शरणत्रयी को तीन बार बोलवाया जाता था।८९ साथ ही पंचशील की शिक्षा भी दी जाती थी। लेकिन 'विनयपिटक'९१ में दस शिक्षा पदों को सिखलाने का वर्णन आया है(१) प्राण हिंसा अर्थात् जीव हत्या न करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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