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१८४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन (२) चोरी न करना। (३) अब्रह्मचर्य से दूर रहना। (४) असत्य न बोलना। (५) मद्य, कच्ची शराब आदि बुद्धि-भ्रष्ट करनेवाली चीजों के सेवन से बचना। (६) दोपहर के बाद भोजन न करना। (७) नृत्य, गीत, बाजा और चित्त को चंचल करनेवाले तमाशों को न देखना। (८) माला, गंध और उबटन के धारण, मण्डन तथा विभूषण की बात न करना। (९) ऊँची तथा महार्ध शय्या पर न सोना। (१०) सोना-चाँदी आदि दान में ग्रहण न करना।
प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् विद्यार्थी गुरु को सिर झुकाकर प्रणाम करता था और गुरु के उपदेश तथा आदेश को ग्रहण करता था।९२ ।।
प्रव्रज्या संस्कार में किसी प्रकार का जातिबन्धन नहीं था। बुद्ध ने कहा हैभिक्षुओं! जिस प्रकार गंगा, यमुना, अचिरवती अर्थात् राप्ती, शरय अर्थात् सरयू और मही (मण्डक) आदि सभी नदियाँ महासमुद्र को प्राप्तकर अपने नाम-गोत्र आदि को छोड़ देती हैं और उनका एक नाम हो जाता है- महासमुद्र; उसी प्रकार भिन्न-भिन्न जातियाँ जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि संघ में मिलकर एकरूप हो जाती हैं तथा उनका एक ही नाम रह जाता है - श्रामणेर, भिक्षु। लेकिन जातक में कहा गया है कि विद्यालयों में चाण्डालों का प्रवेश वर्जित था। जिन विद्यालयों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, दर्जी, मछेरों आदि को शिक्षा दी जाती थी उन विद्यालयों में चाण्डालों को शिक्षा नहीं दी जाती थी।९४ प्रव्रज्या के लिए अयोग्य विद्यार्थी
'विनयपिटक'९५ में प्रव्रज्या के लिए अयोग्य व्यक्तियों के एकतीस लक्षणों को बताया गया है। इसके आधार पर प्रव्रज्या संस्कार के लिए योग्य विद्यार्थियों के स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है(१) जिसके हाथ कटे हों। (२) जिसके पैर कटे हों। (३) जिसके हाथ और पैर दोनों कटे हों। (४) जिसके कान कटे हों।
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