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शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
१७५ इन तैंतीस आशातनाओं का पालन करके अविनीत शिक्षार्थी अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं।
ग्रन्थों में कुछ ऐसे दुराचारी शिष्यों के उल्लेख भी मिलते हैं जो अपने आचार्य की आज्ञा पाकर हाथापायी भी कर बैठते थे। एक बार हरिकेशबल मुनि किसी ब्राह्मण के यज्ञवाटक में गये और भिक्षा याचना की तो अपने गुरु का इशारा पाते ही खण्डिए (छात्रगण) मुनि को डण्डे, फलक आदि से मारने-पीटने लगे जिससे उनके मुँह से
खून निकलने लगा था।२६ इसी प्रकार इन्द्रपुर के राजा इन्द्रदत्त के बाइस पुत्र थे। राजा ने अपने पुत्रों को आचार्य के पास पढ़ने के लिए भेजा। आचार्य यदि कुछ कहते तो वे आचार्य को मारते-पीटते और दुर्वचन बोलते थे। यदि आचार्य उनको अनुशासित करते तो वे अपनी माँ से जाकर शिकायत करते। उनकी माँ आचार्य के ऊपर गुस्सा करती तथा ताना मारती कि आप समझते हैं कि क्या पुत्र कहीं से ऐसे ही आ जाते हैं।२७ विनय के फल
विनय में वह शक्ति है जो जीवन को सच्ची प्राणवत्ता देती है, सच्ची दिशा देती है। यदि मनुष्य में विनय, शालीनता, सरलता, सादगी आदि सद्गुण नहीं है तो वह कहने मात्र का मनुष्य है, मानवता का स्वत्व उसमें नहीं हो सकता? जैनागमों में विनय के निम्नलिखित फल बताये गये हैं(१) शिष्य के विनय-भाव से प्रसन्न होकर आचार्य अर्थगम्भीर और विपुल श्रुतज्ञान
का लाभ करवाते हैं।२८ (२) वह तप, सामाचारी, समाधि तथा पंचमहाव्रतों का पालन करके दिव्य ज्योति
को प्राप्त करता है।२९ (३) जिस प्रकार शकटादिवाहन को ठीक तरह से पहल करनेवाला बैल खुद को
तथा अपने स्वामी को लेकर सुखपूर्वक जंगल को पार करता है, ठीक उसी
प्रकार विद्यार्थी स्व और पर का कल्याण करता है।३० (४) जिस प्रकार पृथ्वी सभी प्राणियों का आधार है, उसी प्रकार योग्य शिष्य कीर्ति
का विस्तार करके सबका आधार बनता है।२१ (५) जो शिष्य आचार्यों और उपाध्यायों की सेवा करते हैं उनका ज्ञान खूब अच्छी
तरह से सींचे हुए वृक्ष की भाँति क्रमशः बढ़ता ही जाता है।३२
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