________________
(७)
१७६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन (६) जो आचार की प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करते हैं, भक्तिपूर्वक गुरुवचनों
को सुनकर एवं स्वीकृत करके कथित कार्य की पूर्ति करते हैं, जो कदापि गुरुश्री की आशातना नहीं करते वे शिष्य संसार में पूज्य होते हैं।३३ जो शिष्य आचार्य को विनय-भक्ति से सम्मानित करते हैं, वे स्वयं भी आचार्य द्वारा विद्यादान से सम्मानित होते हैं और यत्न से कन्या के समान श्रेष्ठ स्थान पर प्रतिष्ठित होते हैं। जो सत्यवादी, जितेन्द्रिय और तपस्वी विद्यार्थी अपनी योग्यता
से आचार्यों का सम्मान करते हैं, वे संसार में सच्ची पूजा-प्रतिष्ठा पाते हैं।३५ (८) गुरुओं की विनयभक्ति करनेवाला, सदा नम्र रहनेवाला, मधुर एवं सत्य बोलनेवाला,
आचार्यादि की सेवा-वन्दना करनेवाला, उनके वचनों को शिरोधार्य करनेवाला शिष्य ही वस्तुतः पूज्य पुरुष होता है।३६
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि विनीत शिक्षार्थी ही सर्वश्रेष्ठ है। वह देव, गन्धर्व और मनुष्यों में पूजित तथा सर्वत्र आदर को प्राप्त करता है। अविनय के फल
__ अविनीत शिक्षार्थी के लक्षण एवं कार्य के साथ-साथ अविनय के भी फल बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं(१) जिस प्रकार प्रचण्ड अग्निशिखा क्षणमात्र में बड़े से बड़े पदार्थों के समूह को
भस्मसात् कर देती है, ठीक उसी प्रकार गुरुजनों की अवज्ञा शिष्य के ज्ञानादि सद्गुणों को भस्मसात् कर देती है। २७
गुरु की आशातना करनेवाले दुर्बुद्धि शिष्य को मुक्ति नहीं मिल सकती।३८ (३) स्वाभिमानी एवं मदान्ध शिष्य की मूर्खता को बताते हुए कहा गया है- जो
अभिमानी शिष्य आचार्य की अवज्ञा या आशातना करते हैं वे प्रचण्ड धधकती हुई अग्नि को पैरों से मल कर बुझाते हैं, बड़े भारी जहरीले साँप को क्रूद्ध करते हैं तथा जीने की इच्छा से सद्यः प्राणहारी हलाहल नामक विष को
पीते हैं।३९ (४) जिस प्रकार सड़े कान की कुतिया घृणा के साथ सभी स्थानों से निकाल दी
जाती है, उसी प्रकार गुरु के प्रतिकूल आचरण करने वाला दुश्शील वाचाल
शिष्य भी सर्वत्र अपमानित करके निकाल दिया जाता है। (५) जिस प्रकार गज, बैल तथा अड़ियल घोड़े आदि अविनीतता अर्थात् न चलने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org