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१७० जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन जाकर अर्हत्देव की पूजा करना आवश्यक था। राजपुत्रों को छोड़कर सभी के लिए भिक्षावृत्ति का विधान था। राजकुमारों को अन्तःपुर में जाकर माता-पिता से भिक्षा माँगनी पड़ती थी। भिक्षा में प्राप्त वस्तु का अग्रभाग श्री अरहन्तदेव को समर्पण कर बाकी बचे हुए योग्य अन्न को ग्रहण करने का विधान था।११
(३) व्रतचर्या उत्कृष्ट चिह्नों से युक्त ब्रह्मचर्य आदि व्रत को धारण करना व्रतचर्या संस्कार है। १२ व्रतचर्या का अभिप्राय विद्याध्ययन के समय कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक का होना है जिससे विद्याध्ययन में कोई बाधा न हो। इस संस्कार में कमर में तीन लर की मूंज की मेखला पहनायी जाती थी जो रत्नत्रय की विशुद्धि का प्रतीक माना जाता था। सफेद धोती का पहनना यह सूचित करती थी कि अरहन्तदेव का कुल पवित्र और विशाल है। सात लर का गूंथा हुआ यज्ञोपवीत सात परम स्थानों का सूचक था। स्वच्छ और उत्कृष्ट मुण्डित सिर मन, वचन और काय की पवित्रता का द्योतक था।
(४) व्रतावरण क्रिया- समस्त विद्याओं के अध्ययन के पश्चात् व्रतावरण क्रिया होती थी। यह क्रिया गुरु के साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करके बारह अथवा सोलह वर्ष बाद की जाती थी। व्रतावरण के बाद ब्रह्मचर्य धारण करते समय वस्त्र, आभूषण और माला आदि का जो त्याग किया गया था, वह गुरु की आज्ञा से पुन: धारण कराया जाता था।१३ जो शस्त्रोपजीवी अर्थात् क्षत्रिय वर्ग के थे वे पुनः अपनी आजीविका के लिए शस्त्र धारण कर सकते थे। वैश्य कृषि, व्यापार आदि कार्यों में प्रवृत्त हो सकते थे। किन्तु ब्रह्मचर्य धारण करते समय मधु, मांस, पाँच उदुम्बर फलों तथा हिंसादि स्थूल पापों का त्याग कर सदाचारमयी प्रवृत्ति को अपनाता था जिसका व्रतावरण क्रिया के बाद भी जीवनपर्यन्त पालन करना पड़ता था।१४ शिक्षार्थी की योग्यताएँ
प्राचीनकाल में विद्यार्थियों को ज्ञानार्जन के लिए आश्रमों में गुरु के पास जाना पड़ता था। उन विद्यार्थियों में कुछ कोमल स्वभाव तथा मृदुभाषी हुआ करते थे तो कुछ उद्दण्ड प्रवृत्ति के होते थे जिन्हें जैन ग्रन्थों में क्रमश: विनीत-अविनीत नाम से अभिहित किया गया है। विनयी का चित्त अहंकार रहित, सरल, विनम्र और अनाग्रही होता है। ठीक इसके विपरीत अविनयी का चित्त अहंकारी, कठोर, हिंसक और विद्रोही प्रवृत्ति का होता है। 'उत्तराध्ययन' में विनीत तथा अविनीत को परिभाषित करते हुए कहा गया है- जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, गुरु के सानिध्य में रहता है, गुरु के इंगित एवं आकार अर्थात् संकेत और मनोभावों को जानता है वह विनीत है और जो गुरु की आज्ञा
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