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षष्ठ अध्याय शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
विद्यार्थी जीवन मानव जीवन में सबसे श्रेष्ठ है। यदि यह कहा जाय कि विद्यार्थी जीवन मानव जीवन की नींव है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिस प्रकार विशाल भवन के निर्माण में नींव के प्रथम पत्थर या ईंट का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, उसी प्रकार मानव जीवन के निर्माण में विद्यार्थी जीवन का सर्वोपरि स्थान है। वैदिक संस्कृति में वैयक्तिक जीवन को चार भागों में विभक्त किया गया है जिसमें पहला भाग विद्यार्थी जीवन है, जिसे ब्रह्मचर्याश्रम के नाम से जानते हैं। श्रमण परम्परा में ब्रह्मचर्याश्रम में लौकिक शिक्षाकाल का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि श्रमण परम्परा ने आध्यात्मिक जीवन पर अधिक बल दिया है, फिर भी जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं में ब्रह्मचर्याश्रम को शिक्षण-काल के रूप में स्वीकार किया गया है।'
प्राचीनकाल में शिक्षार्थी को विद्या अर्जन के लिए आचार्य के पास जाना पड़ता था जो अरण्य में रहा करते थे। गुरु (आचार्य) प्राय: सांसारिक विषय भोगों से विरक्त साधु हुआ करते थे जिनसे शिक्षार्थियों को न केवल किताबी ज्ञान मिलता था, अपितु व्यावहारिक जीवन का भी ज्ञान प्राप्त होता था। शिक्षार्थी का अर्थ ही होता है- जो शिक्षा अर्थात् विद्या का इच्छुक हो, वह शिक्षार्थी है। विद्यार्थी के लिए 'छात्र' शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। छात्र शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए व्याकरणाचार्य पण्डित तारणीश झा ने कहा है - 'छत्रं गुरोर्दोषावरणं तत् शीलमस्य सः छात्रः' २ अर्थात् गुरु के दोषों पर आवरण डालना छत्र है और जिसका इस प्रकार का आचरण है वह छात्र है।
जैन परम्परा
अध्ययन-काल
जैनागम के अनुसार बालक का अध्ययन कुछ अधिक ८ वर्ष से प्रारम्भ होता है। महावीर ने भी आठ वर्ष की उम्र में लेखशाला में प्रवेश किया था। महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ ने महावीर को लेखशाला में भेजने से पूर्व नैमित्तिकों को बुलाकर मुहूर्त
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