________________
(३)
१६० जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन के गुरु १०७ पाये जाते हैं(१) पहला गुरु वह है जो अशुद्ध शीलवाला होने पर भी 'मैं शुद्ध शीलवाला हूँ,
मेरा शील अवदात्त है, निर्मल है आदि का दावा करता है। (२) दूसरा गुरु वह है जो आजीविका के अशुद्ध होने पर भी शुद्ध आजीविका होने
का दावा करता है। तीसरा गुरु वह है जो धर्मोपदेश अशुद्ध होने पर भी शुद्ध धर्मोपदेशवाला होने का दावा करता है। चौथा गुरु वह है जो व्याकरण अर्थात् भविष्य कथन अशुद्ध होने पर भी शुद्ध
व्याकरण वाला होने का दावा करता है। (५) पांचवां गुरु वह है जो ज्ञान-दर्शन अशुद्ध होने पर भी शुद्ध ज्ञानदर्शन वाला
होने का दावा करता है।
परन्तु उपर्युक्त पाँच प्रकार के गुरु झूठे गुरु की श्रेणी में आते हैं। सच्चे गुरु तो वे कहलाते हैं जो शीलसम्पन्न हों, अहिंसा का पालन करनेवाले हों, ब्रह्मचारी हों, मिथ्या भाषण से विरत हों तथा चुगली, कठोर वचन, विवाद, ऊँची शय्या आदि से विरत हों। १०८
योग्य वे हैं जो सम्यक्-संबुद्ध, धर्म स्वाध्यायी, मुक्ति की ओर ले जाने वाले, शान्ति देनेवाले तथा सम्यक-सम्बुद्ध प्रवेदित हों और जिनके बताये गये मार्ग पर शिष्य धर्मानुसार मार्गारूढ़ हों।१०९ गुरु का महत्त्व
ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा वृत्तान्त में लिखा है कि 'गुरु लोग स्वयं गूढ़ और गुप्त तत्त्वों का अच्छी तरह अध्ययन करते हैं और उनके कठिन अर्थों को जान लेते हैं तथा विद्यार्थियों को कठिन शब्दों को समझने में सहायता देते हैं। ११०
डॉ० मदनमोहन सिंह ने गुरु के महत्त्व को प्रकाशित करते हुए अपनी पुस्तक 'बुद्धकालीन समाज और धर्म' में लिखा है - प्राचीन भारत में आध्यात्मिक गुरु का बड़ा महत्त्व था। भारतीय संस्कृति की परम्परा में ज्ञानार्जन के लिए गुरु-सेवा की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया है, चाहे वह वैदिक धर्म हो चाहे जैन या बौद्ध।१११ तुलना १. जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराएँ गुरु को एक आदर्श गुरु के रूप में ग्रहण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org