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शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व
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(१८) बद्ध-मुष्टि नहीं होनी चाहिए। (१९) पुत्रवत् स्नेह करना चाहिए। (२०) वह अपने उद्देश्य से पतित न हो सके, यह हमेशा प्रयत्न करना चाहिए। (२१) समस्त शिक्षा प्रकारों को देकर उसे अभिवृद्ध कर रहा हूँ, ऐसा सोचना चाहिए। (२२) शिक्षार्थी के साथ मैत्री भाव रखना चाहिए। (२३) विपत्ति आ जाने पर उसे छोड़ना नहीं चाहिए। (२४) सिखाने योग्य बातों को सिखाने में कभी भी चूक नहीं करनी चाहिए। (२५) धर्म से गिरते देख उसे आगे बढ़ाना चाहिए।
डॉ०आर०के० मुखजी ने भी उपाध्याय के उपर्युक्त कर्तव्यों का समर्थन करते हुए कहा है- शिष्य के द्वारा गुरु के प्रति हार्दिक समर्थन, यह अपेक्षा करता है कि गुरु भी शिष्य के प्रति सहृदयता और स्नेह का भाव रखें, जिस तरह से शिष्य के कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं, उसी तरह शिष्य के प्रति गुरु के कर्तव्यों का भी विधान है। गुरु के कर्तव्यों को डॉ० मुखर्जी ने तीन भागों में विभक्त किया है, जो इस प्रकार हैं१०६(१) गुरु अपने नियन्त्रण में रखे गये शिष्यों को शिक्षण द्वारा, प्रश्न पूछकर, प्रबोधन
देकर तथा उपदेश देकर सभी सम्भव बौद्धिक, आध्यात्मिक तथा पथ-प्रदर्शक
सहायता प्रदान करे। (२) शिष्य के पास यदि किसी आवश्यक सामग्री की कमी है तो गुरु उसे अपनी
सामग्रियों में से दे। जैसे- भिक्षापात्र, वस्त्र आदि। (३) शिष्य के अस्वस्थ हो जाने पर गुरु उसकी सेवा, उसके जीवनान्त तक अथवा
स्वस्थ होने तक करे। इस अवधि में गुरु को शिष्य की सेवा उसी तरह करनी चाहिए जिस तरह शिष्य स्वस्थ होने की स्थिति में गुरु की सेवा करता है। बिछावन से उठने से लेकर सोने तक सभी आवश्यक सेवाएँ करनी चाहिए। जैसे- दाँत साफ करने के लिए दातून, मुँह धोने के लिए पानी, यहाँ तक की पैर धोने
के लिए भी पानी देना चाहिए। गुरु के प्रकार
भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्य मौद्गल्यायन से बताया है कि लोक में पाँच प्रकार
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