________________
शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व
१४५ की जाती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। 'राजवार्तिक' में प्रायश्चित्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है- 'प्रायः' का अभिप्राय है- अपराध और चित्त का- 'शोधन।' अर्थात् जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है।५५ प्रायश्चित्त हृदय को अत्यन्त सरल बनाकर गुरुजनों के समक्ष पाप प्रकट करने की तप-साधना-विधि है।
विनय तप- जैन धर्म में विनय को धर्म का मूल माना गया है।५६ यश, प्रतिष्ठा आदि की भावना पर संयम करना, अहंकार पर विजय करना, मन की निरंकुशता को समाप्त करना एवं गुरुजनों की आज्ञा का पालन करना आदि विनय के अन्तर्गत आते हैं। विनय का फल मोक्ष है। यह बात आगमों में स्वीकार की गयी है। जिस प्रकार वृक्ष का मूल है- जड़ और अन्तिम फल है- रस, उसी प्रकार धर्मरूपी वृक्ष का मूल है- विनय और उसका अन्तिम फल है- मोक्षा५७
वैयावृत्य तप- जीवों में परस्पर एक-दूसरे का सहयोग व उपकार करने की वृत्ति रहती है।५८ जब यही वृत्ति एक-दूसरे के जीवन में, धर्म की साधना में, आत्मिक विकास में तथा जीवन-विकास में सहयोग करती है, सेवा करती है, तब वह वैयावृत्य कहलाती है। वैयावृत्य करने से आत्मा तीर्थङ्कर नाम-गोत्र-कर्म का उपार्जन करती है।५९ इस तप की साधना से आत्मा विश्व में सर्वोत्कृष्ट पद की प्राप्ति कर सकती है।
स्वाध्याय तप- सत्शास्त्रों को मर्यादापूर्वक पढ़ना, विधि सहित अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करना स्वाध्याय है।६० स्वाध्याय का विस्तृत विवेचन पहले किया जा चुका है।
___ ध्यान तप- मन की एकाग्रता का दूसरा नाम ही ध्यान है। आचार्य भद्रबाहु ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है- चित्त को किसी भी विषय पर स्थिर करना, एकाग्र करना ध्यान है।६१ ध्यान के द्वारा मन स्थिर रहता है। मन को एकाग्र करने के लिए ध्यान अमोघ साधन है।
व्युत्सर्ग तप- विशिष्ट उत्सर्ग, विशिष्ट त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। व्युत्सर्ग में सभी पदार्थों के प्रोह का त्याग किया जाता है। यहाँ तक कि प्राणों के प्रति भी मोह को त्याग दिया जाता है। आचार्य अकलंक ने व्युत्सर्ग को परिभाषित करते हुए कहा है- निस्संगता- अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग ही व्युत्सर्ग है।६२ दूसरे शब्दों में- आत्मसाधना के लिए अपने-आपको उत्सर्ग करने की विधि का नाम व्युत्सर्ग है। व्युत्सर्ग के द्वारा जीव अतीत एवं वर्तमान के दोषों की विशुद्धि करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org