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जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
छः आवश्यक
अवश्य करने योग्य कार्य आवश्यक है। कहा भी गया है- अवश्यम् करणाद् आवश्यकम्।६३ जो अवश्य किया जाये वह आवश्यक है। आवश्यक छः प्रकार के हैं
सामायिक- राग-द्वेष रहित समभाव को सामायिक कहते हैं। सामायिक का मुख्य लक्षण 'समता' है।६४ सामायिक शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए पं० आशाधर जी ने कहा है- सामायिक शब्द 'सम' और 'अय' के मेल से निष्पन्न हुआ है जिसमें सम का अर्थ होता है राग और द्वेष से रहित तथा 'अय' का अर्थ होता है- ज्ञान। अत: राग-द्वेष से रहित ज्ञान ‘समाय' है और उसमें जो हो वह सामायिक है।६५ इसी को उपाध्याय अमरमुनि ने इस प्रकार कहा है - आत्मा को मन, वचन तथा काय की पापवृत्तियों से रोककर आत्मकल्याण के एक निश्चित ध्येय की ओर लगा देने का नाम सामायिक है।६६
सामायिक का पालन करनेवाला साधक सांसारिक दुष्प्रवृत्तियों की ओर से हटकर आध्यात्मिकता की ओर अपने मन, वचन और काय को केन्द्रित कर लेता है, कषाय और राग-द्वेष पर विजय पाकर सबके साथ मित्रवत व्यवहार करता है और सबके प्रति समभाव की दृष्टि रखता है।
चतुर्विंशतिस्तव- ऋषभ आदि चौबीस तीर्थङ्करों के जिनवरत्व आदि गुणों की स्तुति करना, कीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है। इनकी स्तुति से साधना का मार्ग प्रशस्त होता है, जड़ एवं मृत श्रद्धा सजीव एवं स्फूर्तिमती होती है। साथ ही त्याग एवं वैराग्य का महान आदर्श आँखों के सामने देदीप्यमान हो उठता है।६७
वन्दन- मन, वचन और शरीर का वह प्रशस्त व्यापार जिसके द्वारा गुरुदेव के प्रति भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता है, वन्दन कहलाता है। वन्दन का यथाविधि पालन करने से विनय की प्राप्ति होती है। अहंकार का नाश होता है, उच्च आदर्शों की झाँकी का स्पष्टतया भान होता है, गुरुजनों की पूजा होती है, तीर्थङ्करों की आज्ञा का पालन होता है और श्रुत धर्म की आराधना होती है।६८
प्रतिक्रमण- प्रमादवश शुभ योग से च्युत होकर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद पुनः शुभ योग में लौट आना प्रतिक्रमण है। आचार्य भद्रबाहु ने चार६९ विषयों का प्रतिक्रमण बतलाया है । (१) हिंसा, असत्य आदि जिन पाप कर्मों का श्रावक तथा साधु के लिए निषेध किया
गया है, यदि कभी भ्रान्तिवश वे कर्म कर लिए जायें तो प्रतिक्रमण करना चाहिए।
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