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१४४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
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अतः
भिक्षाचरी तप- भिक्षाचरी का अर्थ होता है— विविध प्रकार के अभिग्रह करके आहार की गवेषणा करना । भिक्षा यानी माँगना, याचना करना, किन्तु सिर्फ माँगना मात्र तप नहीं है। शास्त्र में कहा गया है कि दीनतापूर्वक माँगना पाप है। भिक्षाचरी 'तप' तभी संभव है जब उसे नियमपूर्वक पवित्र उद्देश्य से और शास्त्रसम्मत विधि-विधान के साथ ग्रहण किया जाय। जैन ग्रन्थों में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में समान भाव से भिक्षा करने को कहा गया है। ४९ गोचरी, मधुकरी और वृत्तिसंक्षेप आदि नाम भिक्षाचरी के ही पर्यायवाची हैं । ५०
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रस- परित्याग तप— रस- परित्याग एक प्रकार का अस्वाद व्रत है। इसमें स्वाद पर विजय प्राप्त करने की साधना की जाती है। रस का अर्थ होता है प्रीति बढ़ानेवाला । जिस कारण से भोजन में प्रीति उत्पन्न होती हो उसे रस कहते हैं। सरस भोजन के सेवन का निषेध करते हुए महावीर स्वामी ने कहा है- सरस पदार्थों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रसदार गरिष्ट आहार से धातु आदि पुष्ट होती हैं, वीर्य उत्तेजित होता है, उससे कामाग्नि प्रचण्ड होती है और विकार साधक को वैसे ही घेरने लगते हैं जैसे कि स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष को पक्षीगण घेर लेते हैं । ५१ अतः स्वाद भावना से रहित भोजन करना चाहिए, क्योंकि स्वाद न लेने से कर्मों का हल्कापन होता है और साधक आहार करता हुआ भी तपस्या करता है । ५२
कायक्लेश तप- कायक्लेश का अर्थ होता है शरीर को कष्ट देना । कष्ट दो प्रकार के होते हैं - (1) कष्ट का प्राकृतिक रूप में स्वयं आना तथा (II) कष्ट को उदीरणा करके बुलाना । यहाँ कायक्लेश का दूसरा अर्थ ही ग्रहण किया गया है। कायक्लेश अर्थात् अपनी ओर से कष्टों को स्वीकार करना। साधक विशेष कर्म-निर्जरा के लिए अनेक प्रकार के आसन, ध्यान, प्रतिमा, केशलुंचन, शरीर के प्रति मोह त्याग आदि के माध्यम से विदेह भाव को स्वीकार करता है। यह विशेष प्रकार का तप ही काय - क्लेश तप है । ५३ कायक्लेश महान धर्म और कर्म-निर्जरा का कारण है।
प्रतिसंलीनता तप- आत्मा के प्रति लीनता प्रतिसंलीनता है। दूसरे शब्दों में पर-भाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन बनाने की प्रक्रिया ही प्रतिसंलीनता तप है । इन्द्रियों को, कषायों को, मन-वचन आदि योगों को ठीक उसी प्रकार अपने में समेट लेना जिस प्रकार कछुआ अपने अंगोपांग को भीतर समेट लेता है। भगवती में कहा भी गया है - कछुए की तरह समस्त इन्द्रियों एवं अंगोपांग का गोपन करना चाहिए । यह साधक का इन्द्रिय संयम काययोग तप है । ५४
प्रायश्चित्त तप- पाप की विशुद्धि अथवा दोष की विशुद्धि के लिए जो क्रिया
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