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________________ शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व १४३ ४५ द्वारा शरीर के रस, रक्त, मांस, हड्डियाँ, मज्जा, शुक्र आदि तप जाते हैं, सूख जाते हैं तथा जिसके द्वारा अशुभ कर्म जल जाते हैं, वह तप है। ४४ इसी प्रकार जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता हो, उन्हें भस्मसात कर डालने में समर्थ हो, उसे तप कहते हैं। तप आत्मा को ठीक उसी प्रकार शुद्ध एवं निर्मल करती है जिस प्रकार अग्नि सोने को शुद्ध करती है, फिटकिरी मैले जल को निर्मल बनाती है, सोडा या साबुन मलिन वस्त्र को उज्ज्वल बनाता है। 'उत्तराध्ययन में' तप के दो भेद वर्णित हैं(१) बाह्य तप और (२) आभ्यन्तर तप । ४६ बाह्य तप का अर्थ होता है - बाहर से दिखायी देनेवाला तप । जो तप साधना शरीर से अधिक सम्बन्ध रखती हो वह बाह्य कहलाती है, यथा उपवास आदि। इसके अन्तर्गत अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रस- परित्याग, काय-क्लेश और संलीनता आदि तप आते हैं। अन्तर्मन में चलनेवाली शुद्धि - प्रक्रिया आभ्यन्तर तप कहलाती है। इसका सम्बन्ध मन से अधिक रहता है। मन को मांजना, सरल बनाना, एकाग्र करना और शुभ चिन्तन में लगाना आदि आभ्यन्तर तप की विधियाँ हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग आदि तप इसके अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर दोनों मिलाकर तप के बारह प्रकार होते हैं, जिनका अलग-अलग विवेचन निम्न प्रकार से है- अनशन - अनशन को सभी तपों में प्रथम स्थान मिला है क्योंकि यह आचरण में अन्य तपों से अधिक कठोर एवं दुर्घर्ष है। आहार का त्याग ही अनशन है। अनशन का अर्थ ही होता है अशन का त्याग अर्थात् आहार का त्याग। आहार का त्याग करने से मन से विषय विकार दूर होते हैं। तप के लाभ के विषय में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया है आहार त्याग करने से किस फल की प्राप्ति होती है ? अर्थात् आत्मा को अनशन से क्या लाभ होता है ? उत्तर में कहा गया है— आहार का त्याग करने से जीवन की आशंसा अर्थात् शरीर एवं प्राणों का मोह छूट जाता है। ४७ ऊनोदरी — तप का दूसरा भेद है ऊनोदरी । ऊनोदरी अर्थात् भोजन करते समयपेट को खाली रखना, भूख से कम खाना ऊनोदरी है। ऊनोदरी का ही दूसरा नाम अवमौदर्य है। दूसरे शब्दों में खाना खाते-खाते रसना पर संयम कर लेना ऊनोदरी है। स्वाद आते हुए भोजन को बीच में छोड़ देना उतना ही दुष्कर है जितना कि उपवास करना । ऊनोदरी तप से अनेक रोग मिट जाते हैं तथा अस्वस्थ व्यक्ति भी स्वस्थ हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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