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________________ १३४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन है जो भीतर से कुछ निकालकर दे वह गुरु कहलाता है। गुरु की तीसरी व्युत्पत्ति है- गीर्यते स्तूयते देवगन्धर्वमनुष्यादिभिः। गीर्यते स्तूयते महात्वाद् इति वा। अर्थात् देवों, गन्धर्वो और मनुष्यों के द्वारा स्तुति किये जाने के कारण वह गुरु कहलाता है। महिमा और माहात्म्य के कारण उसकी स्तुति की जाती है। एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार -'गुकारस्तमसि प्रोक्तो रुकास्तनिवर्तकः।' जिसमें प्रथम वर्ण 'गु' अन्धकार का द्योतक है और दूसरा वर्ण 'रु' प्रकाश का वाचक है। अत: अन्धकार को दूर करने वाला ही गुरु है। इस प्रकार 'गुरु' शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ में गुरु एक धर्मोपदेशक तथा पथ-प्रदर्शक दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु सामान्यतया 'गुरु' शब्द का अर्थ शिक्षक से लिया जाता है जो हमें स्कूल या कालेजों में किसी विषय का विधिवत ज्ञान कराते हैं। इनके अतिरिक्त गुरु के और भी अर्थ देखने को मिलते हैं(१) ज्योतिषशास्त्र में बृहस्पति नाम का एक ग्रह है जिसे गुरु भी कहा जाता है। (२) व्याकरण में ह्रस्व और दीर्घ दो प्रकार के स्वर माने गये हैं, जिसमें दीर्घ को गुरु के नाम से भी इंगित किया जाता है। जैन परम्परा जैन ग्रन्थों में गुरु के लिए आचार्य २, बुद्ध, पूज्य, धर्माचार्य,५ उपाध्याय आदि शब्दों के भी प्रयोग देखने को मिलते हैं। आचार्य (गुरु) की परिभाषा _ 'भगवतीसूत्र' के वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने आचार्य को परिभाषित करते हुए कहा है- जो जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित आगम ज्ञान को हृदयंगम कर उसे आत्मसात करने की उत्कण्ठा वाले शिष्यों द्वारा विनयादिपूर्ण, मर्यादापूर्वक सेवित हों उन्हें आचार्य कहते हैं। 'मूलाचार' में कहा गया है - जो आचारवेत्ता हैं, सदा आचार का आचरण करते हैं और दूसरों से करवाते हैं, वे आचार्य हैं। इसी प्रकार आचार्य शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए आचार्य वीरसेन ने कहा है - जो पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं तथा दूसरों से करवाते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। सामान्यतया जिनसे आचरण ग्रहण किया जाता है उन्हें आचार्य कहते हैं।१° आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि जिसके निमित्त से व्रतों का आचरण करते हैं वे आचार्य कहलाते हैं।११ ‘दशवैकालिकचूर्णि' के अनुसार सूत्र और अर्थ से सम्पन्न तथा अपने गुरु द्वारा जो गुरु पद पर स्थापित होता है वह आचार्य कहलाता है।१२ जिनशासन के अर्थ का उपदेशक होने के कारण मोक्ष के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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