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________________ पञ्चम अध्याय शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुरु को सामाजिक विकास का सूत्रधार माना जाता है। समाज की आकांक्षाओं, आवश्यकताओं और आदर्शों को व्यावहारिक रूप में परिणत करने का कर्तव्य गुरु को ही निभाना पड़ता है। यदि कहा जाय कि गुरु हमारी संस्कृति के केन्द्रविन्दु हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिस प्रकार तराजू में दो पलड़े होते हैं। दोनों पलड़ों के बीच डण्डी होती है उसमें एक मुठिया लगी रहती है जो केन्द्र का काम करती है। डण्डी या मुठिया के अभाव में केवल पलड़ों से किसी भी वस्तु को तौला नहीं जा सकता है क्योंकि डण्डी या मुठिया के होने पर ही हम तराजू का उपयोग कर सकते हैं। इसी प्रकार हमारी संस्कृति में तीन मुख्य तत्त्व पाये जाते हैं- देव, गुरु और धर्म। इन तत्त्वों में गुरु का पद मध्यस्थ है और मध्यवर्ती होकर वे देव और धर्म की पहचान करवाते हैं। जैन परम्परा में भी गुरु को नमस्कार महामन्त्र में ‘णमो आयरियाणं' के रूप में मध्यस्थ स्थान प्राप्त है। भारत की इस पावन धरती पर महान ज्ञानी, ध्यानी तथा ऋषि आदि उत्पन्न हुए जिन्होंने अपने ज्ञान की दिव्य ज्योति से व्यक्ति और समाज में व्याप्त अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने का प्रयास किया। इसी कारण जब भी अध्यापक अथवा अध्यापन के विषय में चर्चा होती है तो किसी न किसी रूप में हम अपने उन प्राचीन गुरुओं को आदर्श रूप में स्वीकार करते हैं। चाहे वह अध्यापन कार्य का क्षेत्र हो अथवा ज्ञान के आविष्कार का विषय हो, सभी क्षेत्रों में हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती है। जहाँ तक विद्यार्थी जीवन को सार्थक बनाने की बात है तो उसमें गुरु का सर्वोच्च स्थान है। 'गुरु' का शाब्दिक अर्थ गुरु शब्द की व्युत्पत्ति 'गृ' धातु में 'कु' और 'उत्व' प्रत्यय लगने से होती है। 'गृणाति उपदिशित धर्म गिरति अज्ञानं वा गुरुः।१ अर्थात् जो अज्ञान को नष्ट करके ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है तथा अन्तर्मन में धर्म की ज्योति प्रज्वलित करता है, धर्म का उपदेश देता है, वही गुरु है। गुरु शब्द की दूसरी व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है - 'गुणातीति गुरुः' जो 'गृ निगरणे' धातु से निष्पन्न है और जिसका अर्थ होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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