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शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व अभिलाषी शिष्य विनयपूर्वक जिनकी सेवा करते हैं, वे सूत्रार्थ के दाता मुनिवर आचार्य हैं।१३ 'मूलाचार' में कहा गया है कि जो सर्वकाल-सम्बन्धी आचार को जानता है तथा योग्य आचार का स्वयं आचरण करता है और अन्य साधुओं को आचरण में प्रवृत्त करता है उसे आचार्य कहते हैं। 'मूलाचार' में आचार्य पद की सार्थकता को निरूपित करते हुये कहा गया है कि पांच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते हुए सुशोभित होने के कारण आचार्य नाम सार्थक होता है।१४
धर्म के उपदेशक को उपाध्याय कहते हैं। आचार्य के बाद उपाध्याय का स्थान होता है। उपाध्याय को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जिनके पास आकर अध्ययन किया जाये वे उपाध्याय हैं।१५ 'मूलाचार' के अनुसार जो स्वाध्याय रूपी द्वादशांगों का अपने शिष्यों को उपदेश देते हैं, पढ़ाते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं।१६ आचार्य के लक्षण
विद्यार्थी के लिए सद्गुरु का होना अत्यन्त आवश्यक होता है। सद्गुरु के अभाव में विद्यार्थी कितनी ही कुशाग्र बुद्धि का क्यों न हो, वह उसी प्रकार प्रकाशित नहीं हो सकता जिस प्रकार बिना सूर्य के चन्द्रमा। किन्तु प्रश्न उपस्थित होता है कि सद्गुरु की संगति कैसे की जाये, उसकी पहचान क्या है? उसके लक्षण क्या हैं? जिसे देखकर यह समझा जाये कि यह सद्गुरु है या असद्गुरु। 'भगवतीसूत्र' में सद्गुरु के लक्षणों को बताते हुए कहा गया है कि जो सूत्र और अर्थ दोनों के ज्ञाता हों, उत्कृष्ट कोटि के लक्षणों से युक्त हों, संघ के लिए मेढ़ि के समान हों, जो अपने गण, गच्छ अथवा संघ को सभी प्रकार के सन्तापों से पूर्णत: विमुक्त रखने में सक्षम हों तथा जो अपने शिष्यों को आगमों की गूढ़ अर्थसहित वाचना देते हों, वे सद्गुरु आचार्य हैं।१९ आचार्य की विशेषता पर प्रकाश डालते हुये कहा गया है- जो प्रवचनरूपी समुद्र जल के मध्य स्नान करने से अर्थात् परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, जो श्रेष्ठ हैं; देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप हैं, संघ के अनुग्रह में कुशल और सूत्रार्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सर्वत्र फैल रही हैं, जो सारण (आचरण), वारण (निषेध) और शोधन (व्रतों की शुद्धि) करनेवाली क्रियाओं में निरन्तर उद्यत हैं, वे आचार्य परमेष्ठी के समान हैं।२० 'आदिपुराण' के अनुसार आचार्य के निम्न लक्षण हैं
(१) सदाचारी, (२) स्थिरबुद्धि, (३) जितेन्द्रियता, (४) अन्तरंग और बहिरंग
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