________________
११८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रमाण विधि में वस्तु के विभिन्न पक्षों का विवेचन किया जाता था। प्रमाण के ही एक अंश नय विधि में किसी एक पक्ष का विवेचन किया जाता था। इसी प्रकार अभिधेय में अर्थ का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों द्वारा कथन करने का विधान था। द्रव्य और भावपूर्वक पदों की व्याख्या प्रस्तुत कर विविध भंगावलियों की स्थापना की जाती थी। अर्थाधिकारविधि के द्वारा एक ही विषय को अनेक रूपों में प्रतिपादित कर पाठ्यविषय को सरल
और बोधगम्य बनाया जाता था।६२ (६) पंचांग-विधि"
पंचांग-विधि के स्वाध्याय-सम्बन्धी पाँच अंग हैं। इन पाँचों अंगों द्वारा विषय के मर्म को समझा जाता था। वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और उपदेश पाँच अंग हैं। इनका विस्तृत विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। प्राचीन काल में पंचांग विधि द्वारा विषयों की व्याख्या द्वारा तथ्य को समझाने का पूर्ण प्रयास किया जाता था। इससे विद्यार्थियों में शिक्षा का उत्तरोत्तर विस्तार होता था। (७) श्रवण-विधि
किसी भी तथ्य को सुनकर ग्रहण करना श्रवण विधि है। 'विशेषावश्यकभाष्य'६४ में सात प्रकार की श्रवण विधियों का उल्लेख है
१. गुरु के मुख से किसी भी बात को चुपचाप सुनना, २. उसे हाँ करके स्वीकार करना, ३. बहुत अच्छा कहकर अनुमोदन करना, ४. सुने हुये विषय में जिज्ञासा व्यक्त करना, ५. उस विषय की मीमांसा करना, ६. उक्त विषय को पूरी तरह पारायण करना,
७. गुरु की भाँति स्वयं उस विषय को अभिव्यक्त करना। (८) प्ररूपणा-विधि
वाच्य-वाचक, प्रतिपाद्य-प्रतिपादक एवं विषय-विषयी भाव की दृष्टि से शब्दों का आख्यान करना प्ररूपणा विधि कहलाती है। प्रमुखत: शिक्षार्थी की जिज्ञासा और गुरु द्वारा उन जिज्ञासाओं का समाधान इन दोनों का समन्वय ही इस विधि की विशेषता है। 'सवार्थसिद्धि'६५ में प्ररूपणा के आठ प्रकार वर्णित हैं- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व। अनुयोग विधि के क्रम में चौदह द्वारों में इन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org