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________________ ११९ शिक्षा-पद्धति आठ प्रकारों का विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। इस प्रकार जैन शिक्षा-पद्धति में गूढ़ से गूढ़ विषय को इस रूप में प्रस्तुत किया जाता था कि शिष्य उसे सुगमता से हृदयङ्गम कर सके। प्राचीनकाल में विषयवस्तु सूत्र रूप में कही जाती थी क्योंकि उस युग में सम्पूर्ण शिक्षाएं मौखिक और स्मृति के आधार पर प्रदान की जाती थीं। इसी कारण प्रारम्भिक साहित्य सूत्र रूप में मिलता है। बाद में चलकर इन पद्धतियों का विकास हुआ और सूत्र की व्याख्याएं की गयीं, फलतनियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि की रचना की गयी। स्वाध्याय से लाभ __ स्वाध्याय केवल ग्रन्थों का अध्ययनमात्र नहीं है अपितु उसके अनुसार आचरण करना भी स्वाध्याय ही कहलाता है। 'धर्मामृत'६६ में स्वाध्याय के लाभ इस प्रकार वर्णित हैं (१) स्वाध्याय से मुमुक्षु की तर्कशील बुद्धि का उत्कर्ष होता है। (२) परमागम की स्थिति का पोषण होता है अर्थात् परमागम की परम्परा पुष्ट होती है। (३) मन, इन्द्रियाँ और संज्ञा अर्थात् आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की अभिलाषा का निरोध होता है। (४) संशय का छेदन होता है तथा क्रोधादि चार कषायों का भेदन होता है। (५) दिन प्रतिदिन तप और संवेग भाव में वृद्धि होती है, परिणाम प्रशस्त तथा समस्त अतिचार दूर होते हैं। (६) स्वाध्याय से अन्य वादियों का भय नहीं रहता है तथा जिनशासन की प्रभावना करने में मुमुक्षु समर्थ होता है। (७) स्वाध्याय से जीवन में सद्विचार आते हैं, मन में सद्-संस्कार जागृत होते हैं।६७ स्वाध्याय से प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि होती है। दीर्घकालीन साधनाओं के द्वारा महापुरुषों ने जो ज्ञान प्राप्त किया उस ज्ञान का लाभ सहज ही प्राप्त हो जाता है।६८ (९) स्वाध्याय से मनोरंजन होता है, साथ ही आनन्द और योग्यता भी प्राप्त होती है।६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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