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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् अङ्गेन ते सुखयतस्तदिदं विधातुः, ___ सर्गक्रमो भगवतो जगतां प्रतीपः।।११।।
कौमुदी- (स्वगतम्) जं भोदि तं भोदु। अहं एदेण सह गमिस्सं। (प्रकाशम्) वणनिवासपसाएण मुद्धा खु अहं न विचित्तभणिदीओ जाणामि। एवं उण किं पि संखेवेण मंतेमि- अवरसत्थवाहपडिवत्तिविवरीदाए पडिवत्तीए तुमं पिक्खिस्सं। अओ वरं जं ते पडिहाइ तं करिज्जासु। ___ (यद् भवति तद् भवतु। अहमेतेन सह गमिष्यामि। वननिवासप्रसादेन मुग्धा खलु अहं न विचित्रभणिती: जानामि। एतत्पुनः किमपि सक्षेपेण मन्त्रयामि-अपरसार्थवाहप्रतिपत्ति- विपरीतया प्रतिपत्त्या त्वां प्रेक्षिष्ये। अतः परं यत् ते प्रतिभाति तत् क्रियताम् ।)
मित्रानन्दः-प्रिये कुडमलाप्रदति! अपरसार्थवाहानांप्रतिपत्तिं बोधयित्वा किमप्यपरमादिश।
कौमुदी- एदं खु अम्हाणं कवडतावसपेडयं। (एतत् खलु अस्माकं कपटतापसपेटकम् ।) मैत्रेय:- ततस्ततः?
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है। तुम्हारे सुन्दर शरीर द्वारा आनन्दित करने वाले ऐश्वर्यसम्पन्न विधाता का यह जगत्सृष्टिक्रम परस्पर-विरोधी प्रतीत होता है।।११।।
कौमुदी-(मन ही मन) जो होता है वह हो, मैं तो इसके साथ जाऊँगी। वन में निवास के कारण भोली-भाली मैं वाक्पटु नहीं हूँ। अत: इससे संक्षेप में कुछ मन्त्रणा करती हूँ-(सार्थवाह!) आपके साथ अन्य सार्थवाहों जैसा दुर्व्यवहार (छल) नहीं करूँगी। इसके आगे आप जो उचित समझें, वह करें।
मित्रानन्द- हे कली के अग्रभाग के समान नुकीली दन्तपंक्ति वाली (शिखरिदशना) प्रिये कौमुदि! दूसरे सार्थवाहों की उपलब्धि के विषय में कुछ और भी बतलाओ।
कौमुदी-यह तो हमारे कपटी संन्यासियों का मायाजाल है। मैत्रेय-फिर उसके बाद?
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